ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
तंत॒मिद्राध॑से म॒ह इन्द्रं॑ चोदामि पी॒तये॑ । यः पू॒र्व्यामनु॑ष्टुति॒मीशे॑ कृष्टी॒नां नृ॒तुः ॥
स्वर सहित पद पाठतम्ऽत॑म् । इत् । राध॑से । म॒हे । इन्द्र॑म् । चो॒दा॒मि॒ । पी॒तये॑ । यः । पू॒र्व्याम् । अनु॑ऽस्तुतिम् । ईशे॑ । कृ॒ष्टी॒नाम् । नृ॒तुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तंतमिद्राधसे मह इन्द्रं चोदामि पीतये । यः पूर्व्यामनुष्टुतिमीशे कृष्टीनां नृतुः ॥
स्वर रहित पद पाठतम्ऽतम् । इत् । राधसे । महे । इन्द्रम् । चोदामि । पीतये । यः । पूर्व्याम् । अनुऽस्तुतिम् । ईशे । कृष्टीनाम् । नृतुः ॥ ८.६८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For every great success, for all wealth and high competence in life and also for the joyous pleasure of it all, I invoke and celebrate Indra, ultimate leader and guide of the people who listens to the prayers and adorations of humanity since time immemorial and rules them all.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! त्याचीच कीर्ती गा जो सर्वांचा स्वामी आहे. तो इन्द्र-नावाचा जगदीश आहे. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अहमुपासकः । पीतये=कृपादृष्ट्यावलोकनाय । महः=महते । राधसे=सर्वप्रकारकधनप्राप्तये च । तं तमित्=तं तमेवेन्द्रम् । चोदामि=स्तुतिं प्रेरयामि=स्तौमीत्यर्थः । पूर्व्याम्=पुराणीम्=नवीनाञ्च । अनुस्तुतिम्=अनुकूलां स्तुतिम् । शृणोति । यश्च । कृष्टीनाम्=प्रजानाञ्च । ईशे=ईशिताऽस्ति । यश्च नृतुः=नायकोऽस्ति ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
मैं उपासक (पीतये) कृपादृष्टि से अवलोकनार्थ और (महः+राधसे) महान् पूज्य सर्व प्रकार के धनों की प्राप्ति के लिये (तम्+तम्+इत्+इन्द्रम्) उसी इन्द्रवाच्य जगदीश की (चोदामि) स्तुति करता हूँ । उस परमदेव को छोड़ अन्य की स्तुति नहीं करता, जो (पूर्व्याम्+अनुष्टुतिम्) प्राचीन और नवीन अनुकूल स्तुति को सुनता हूँ और जो (कृष्टीनाम्) समस्त प्रजाओं का (ईशे) शासक स्वामी है और (नृतुः) जो सबका नायक है ॥७ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! उसी की कीर्ति गाओ, जो सबका स्वामी है । वह इन्द्र नामधारी जगदीश है ॥७ ॥
विषय
प्रजाओं का स्वामी प्रभु।
भावार्थ
( यः ) जो ( नृतुः ) सबका नेता, सब विश्व का संचालक और ( कृष्टीनाम् ) सब कृषि योग्य भूमियों के स्वामिवत् समस्त योनियों, जीवों, मनुष्यों, और प्रजाओं का ( ईशे ) प्रभु है, ( तं-तम् इत् ) निश्चय उस ही ( इन्द्रम् ) परम ऐश्वर्यवान् और ऐश्वर्य के दाता प्रभु को लक्ष्य करके ( पूर्व्याम् ) पूर्व की, सर्वश्रेष्ठ, ( अनु-स्तुतिम् ) अनुरूप स्तुति को ( पीतये ) अपने पालन या रक्षा के लिये ( चोदामि ) करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
महे राधसे-पीतये
पदार्थ
[१] (तं तं इन्द्रं इत्) = उसको और उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही (महे राधसे) = महान् ऐश्वर्य के लिए तथा (पीतये) = अपने अन्दर सोम के रक्षण के लिए (चोदामि) = प्रेरित करता हूँ। हृदय में प्रभु का ही स्मरण करता हूँ। यह स्मरण हमें ऐश्वर्यशाली बनाता है और सोमरक्षण के योग्य करता है। [२] मैं उस प्रभु को अपने अन्दर प्रेरित करता हूँ (यः) = जो (पूर्व्याम्) = सर्वश्रेष्ठ (अनुष्टुतिं) = अनुदिन की जानेवाली स्तुति के (ईशे) = ईश हैं तथा (कृष्टीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (नृतुः) = उत्कृष्ट कर्मफलों को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का हृदय में धारण हमें महान् ऐश्वर्य को प्राप्त कराएगा और हमारे में सोम का रक्षण करेगा। ये प्रभु ही श्रमशील व्यक्तियों को उस उस कर्मफल को प्राप्त कराते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal