ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अश्व॒मिद्गां र॑थ॒प्रां त्वे॒षमिन्द्रं॒ न सत्प॑तिम् । यस्य॒ श्रवां॑सि॒ तूर्व॑थ॒ पन्य॑म्पन्यं च कृ॒ष्टय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑म् । इत् । गाम् । र॒थ॒ऽप्राम् । त्वे॒षम् । इन्द्र॑म् । न । सत्ऽप॑तिम् । यस्य॑ । श्रवां॑सि । तूर्व॑थ । पन्य॑म्ऽपन्यम् । च॒ । कृ॒ष्टयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वमिद्गां रथप्रां त्वेषमिन्द्रं न सत्पतिम् । यस्य श्रवांसि तूर्वथ पन्यम्पन्यं च कृष्टय: ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वम् । इत् । गाम् । रथऽप्राम् । त्वेषम् । इन्द्रम् । न । सत्ऽपतिम् । यस्य । श्रवांसि । तूर्वथ । पन्यम्ऽपन्यम् । च । कृष्टयः ॥ ८.७४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Adore Agni who gives us the wealth of earth and progressive achievement by chariotfuls of glory. Worship him, awfully brilliant, saviour and protector of the good and truthful like Indra, whose renowned victories and astonishing gifts people praise and celebrate one by one, one after another.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याची कीर्ती सर्वत्र व्याप्त आहे, त्याचे गान करा, इतराचे नव्हे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! सत्पतिम्=सतां पालकम् । त्वेषम्= तेजःस्वरूपम् । रथप्रां=रथस्य संसारस्य धनादिभिः पूरयितारम् । गाम्=गमनीयम् । अश्वमित्=सर्वव्यापकमेव । इन्द्रं+न=परमात्मानं तु गायत । यस्य+श्रवांसि=सर्वत्र विततानि । हे कृष्टयः=मनुष्याः ! पन्यम्पन्यं=स्तुत्यं स्तुत्यम् । तूर्वथ=गायत । अत्र तूर्वतिर्गानार्थः ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! जो (सत्पतिम्) सज्जनों का पालक (त्वेषम्) तेजःस्वरूप (रथप्रां) संसार को विविध सुखों से पूर्ण करनेवाला (गाम्) गमनीय गानीय (अश्वमित्) और जो सर्वव्यापक ही है, उस (इन्द्रं+न) परमात्मा को गाओ, (यस्य+श्रवांसि) जिसके यश सर्वत्र फैले हुए हैं । (कृष्टयः) हे मनुष्यों ! (पन्यम्पन्यं च) उस परम प्रार्थनीय का (तूर्वथः) कीर्तिगान करो ॥१० ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! जिसकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त है, उसका गान करो, और का नहीं ॥१० ॥
विषय
परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( कृष्टयः ) मनुष्यो ! आप लोग ( पन्यम्-पन्यम् ) अतिस्तुत्य २ कार्य, धन और ( श्रवांसि ) नाना ज्ञानों और आहार योग्य अन्नों के समान ही ( तूर्वथ ) प्राप्त करो और उस को ( गाम् ) गौ के समान मातृतुल्य ( अश्वम् इत् ) अश्व के समान बलवान् ( रथप्राम् ) महारथी के समान प्रभावशाली, ( त्वेषं ) सूर्य के समान तेजस्वी ( इन्द्रं न ) ऐश्वर्यवान् विद्युत् के समान तीक्ष्ण, ( सत्पतिं ) सज्जनों के पालक प्रभु की उपासना करो। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पन्यं पन्यम्
पदार्थ
[१] हे (कृष्टयः) = श्रमशील मनुष्यो ! उस प्रभु का तुम स्तवन करो जो (इत्) = निश्चय से (अश्वम्) = [अश्नुते ] सब लोक-लोकान्तरों को व्याप्त किये हुए हैं। (गाम्) = [ गमयति अर्थान् ] हृदयस्थरूपेण सब पदार्थों का ज्ञान देनेवाले हैं। (रथप्राम्) = हमारे शरीररूप रथों का पूरण करनेवाले हैं। (त्वेषं) = दीप्त हैं तथा (इन्द्रं न) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले के समान (सत्पतिम्) = अच्छाइयों के रक्षक हैं। (२) हे मनुष्यो ! उस प्रभु का परिचरण करो, (यस्य) = जिसके (श्रवांसि) = ज्ञानों को तुम (तूर्वथ) = अपने अन्दर सुरक्षित करते हो (च) = और (पन्यम् पन्यम्) = प्रत्येक स्तुत्य वस्तु को अपने अन्दर सुरक्षित करते हो। प्रभुस्तवन के द्वारा हम प्रभु के गुणों को अपने अन्दर धारण करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु व्यापक, ज्ञान को देनेवाले, शरीरों का पूरण करनेवाले व शत्रुओं का विद्रावण करके अच्छाइयों का रक्षण करनेवाले हैं। प्रभु ज्ञान व स्तुत्य गुणों को प्राप्त कराते हैं।
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