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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं ति॒रस्तमां॑सि दर्श॒तम् । घृ॒ताह॑वन॒मीड्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मृत॑म् । जा॒तऽवे॑दसम् । ति॒रः । तमां॑सि । द॒र्श॒तम् । घृ॒तऽआ॑हवनम् । ईड्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमृतं जातवेदसं तिरस्तमांसि दर्शतम् । घृताहवनमीड्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमृतम् । जातऽवेदसम् । तिरः । तमांसि । दर्शतम् । घृतऽआहवनम् । ईड्यम् ॥ ८.७४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us rise and reach Agni, light of life, immortal, omnipresent, dispeller of darkness and ignorance, glorious, giver of delicious delicacies, and adorable.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अमृत = त्याचा कधी मृत्यू होत नाही. तो अंध:काराच्या पलीकडे आहे व तो अंधकार निर्मूल करणारा आहे व सर्व वस्तूंचा प्रदाता आहे. त्यासाठी तोच पूज्य आहे. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे ज्ञानिजनाः ! अमृतम्=अविनश्वरम् । जातवेदसम् । तमांसि=अज्ञानानि तिरस्कर्तारम् । दर्शतम्+घृताऽऽहवनम्= घृतादीनां दातारम् । ईड्यं=स्तुत्यं तमीशं भजध्वमिति शेषः ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे ज्ञानिजनो ! (अमृतम्) अविनश्वर और मुक्तिदाता (जातवेदसम्) जिससे सर्व विद्या धनादि उत्पन्न हुए हैं और हो रहे हैं, जो (तमांसि+तिरः) अज्ञानरूप अन्धकारों को दूर करनेवाला है, (दर्शतम्) दर्शनीय (घृताऽऽहवनम्) घृतादि पदार्थदाता और (ईड्यम्) स्तवनीय है, उसकी कीर्ति गाओ ॥५ ॥

    भावार्थ

    अमृत=जिस कारण उसकी कभी मृत्यु नहीं होती, अन्धकार से वह पर और उन्हें निर्मूल करनेवाला है और सर्ववस्तुप्रदाता है, अतः वही पूज्य है ॥५ ॥

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( घृताहवनम् ) तेज से देदीप्यमान अग्नि के तुल्य, वा जलों द्वारा करने योग्य ( ईड्यम् ) स्तुति योग्य ( तमांसि तिरः दर्शतं ) अन्धकारों को दूर करके सत्य ज्ञान को दर्शाने वाले, (अमृतं) अमृत स्वरूप (जात-वेदसम्) ज्ञानमय प्रभु की हम उपासना करें। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अमृतं तिरः तमांसि दर्शतम्

    पदार्थ

    [१] हम उन प्रभु को प्राप्त हों जो (अमृतं) = मृत्यु से परे हैं-सब रोगों से अतीत। (जातवेदसं) = सर्वज्ञ व सर्वैश्वर्यवाले हैं। (तमांसि तिरः) = सब अन्धकारों से परे हैं और (दर्शतम्) = दर्शनीय हैं। [२] उन प्रभु को प्राप्त हों, जो (घृताहवनम्) = मलक्षरण व ज्ञानदीप्ति के हेतु पुकारने योग्य हैं तथा (ईड्यम्) = स्तुत्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपने उपासक को नीरोग [अमृतं] ज्ञानी [जातवेदसं] अन्धकारों से परे व दर्शनीय जीवनवाला बनाते हैं। ये प्रभु ही स्तुत्य हैं। ये हमारे जीवनों में मलों को दूर करके हमें ज्ञानदीप्त जीवनवाला बनाते हैं।

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