ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 6
स॒बाधो॒ यं जना॑ इ॒मे॒३॒॑ऽग्निं ह॒व्येभि॒रीळ॑ते । जुह्वा॑नासो य॒तस्रु॑चः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ऽबाधः॑ । यम् । जनाः॑ । इ॒मे । अ॒ग्निम् । ह॒व्येभिः॑ । ईळ॑ते । जुह्वा॑नासः । य॒तऽस्रु॑चः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सबाधो यं जना इमे३ऽग्निं हव्येभिरीळते । जुह्वानासो यतस्रुचः ॥
स्वर रहित पद पाठसऽबाधः । यम् । जनाः । इमे । अग्निम् । हव्येभिः । ईळते । जुह्वानासः । यतऽस्रुचः ॥ ८.७४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us adore Agni whom all the yajnic people, in spite of limitations, eagerly invoke and serve with ladlefuls of havi.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या प्रार्थनेने संपूर्ण बाधा दूर होतात. त्यासाठी हे माणसांनो! अग्निहोत्र इत्यादी शुभ कर्म करत त्याच्या कीर्तीचे गान करा. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
सबाधः=बाधेन सहिताः । जुह्वानासः=यागादिशुभकर्माणि साधयन्तः । यतस्रुचः=स्रुगादिसाधनसम्पन्नाः । इमे+जनाः= यमग्निम् । हव्येभिः=प्रार्थनादिभिः । ईळते=स्तुवन्ति ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(सबाधः) विविधरोग-शोकादि-बाधासहित अतएव (जुह्वानासः) याग आदि शुभकर्मों को करते हुए और (यतस्रुचः) स्रुवा शाकल्य आदि साधनों से सम्पन्न होकर (इमे+जनाः) ये मनुष्य (यम्+अग्निम्) जिस सर्वाधार परमात्मा की (हव्येभिः) प्रार्थनाओं से (ईळते) स्तुति करते हैं, उसकी प्रार्थना हम सब करें ॥६ ॥
भावार्थ
परमात्मा की प्रार्थना से निखिल बाधाएँ दूर होती हैं, अतः हे मनुष्यों ! अग्निहोत्रादि शुभकर्म करते हुए उसकी कीर्ति का गान करो ॥६ ॥
विषय
परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।
भावार्थ
जिस प्रकार ( सबाधः ) ऋत्विग् लोग ( अग्निम् ) अग्नि को ( यत-स्नुचः ) जुहू आदि साध कर ( जुह्वानासः हव्येभिः ईडते ) आहुति देते हुए चरु आदि से चाहते हैं उसी प्रकार ( इमे ) ये ( सबाधाः ) पीड़ा युक्त ( जनाः ) मनुष्य ( यत-स्रुचः ) प्राणों का निग्रह करके ( जुह्वानासः ) आत्म समर्पण करते हुए ( यम् अग्निम् ) जिस तेजोमय, पापनाशक ज्योति की ( हव्येभिः ) स्तुत्य वचनों से (ईडते) स्तुति करते उसे उत्तम भावों से चाहते हैं, उसी की उपासना करनी चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
जुह्वानासः यतस्रुचः
पदार्थ
[१] हम उस (अग्निं) = अग्रणी प्रभु को प्राप्त करते हैं, (यं) = जिनको (ये) = ये (सबाधः) = काम, क्रोध आदि शत्रुओं के बाधन के साथ रहनेवाले (जनाः) = लोग (हव्येभिः) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (इडते) = उपासित करते हैं। प्रभु की उपासना करनेवाला [क] काम आदि शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करता है। [ख] और सदा दानपूर्वक यज्ञशेष का ही सेवन करता है। [२] ये प्रभु के उपासक (जुह्वानास:) = सदा यज्ञशील होते हैं और (यतस्त्रुचः) = नियमित वाणीवाले होते हैं। वाणी को वश में रखते हुए सदा शुभशब्दों का ही प्रयोग करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-उपासक [१] काम आदि को जीतता है, [२] यज्ञशेष का सेवन करता है, [३] सदा यज्ञशील होता है, [४] वाणी को वश में रखता है।
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