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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यं जना॑सो ह॒विष्म॑न्तो मि॒त्रं न स॒र्पिरा॑सुतिम् । प्र॒शंस॑न्ति॒ प्रश॑स्तिभिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । जना॑सः । ह॒विष्म॑न्तः । मि॒त्रम् । न । स॒र्पिःऽआ॑सुतिम् । प्र॒ऽशंस॑न्ति । प्रश॑स्तिऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं जनासो हविष्मन्तो मित्रं न सर्पिरासुतिम् । प्रशंसन्ति प्रशस्तिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । जनासः । हविष्मन्तः । मित्रम् । न । सर्पिःऽआसुतिम् । प्रऽशंसन्ति । प्रशस्तिऽभिः ॥ ८.७४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Adore and exalt Agni whom yajnic people serve as a friend, with havi in hand and oblations of clarified butter, and celebrate with songs of praise.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराला आपला मित्र जाणून त्याच्यावर प्रेम करावे व त्याच्या आज्ञेप्रमाणे चालावे. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्य महत्त्वं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हविष्मन्तः=हविरादिसाधनसंपन्नाः । जनासः=जनाः । प्रशस्तिभिः । प्रस्तवैः । सर्पिरासुतम्=घृतक्षीरादिवस्तुजनकम् । मित्रं+न=मित्रमिव यमीशं प्रशंसन्ति ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (हविष्मन्तः) घृतादिसाधनसम्पन्न (जनासः) मनुष्य (प्रशस्तिभिः) उत्तमोत्तम विविध स्तोत्रों से (सर्पिरासुतिम्) घृतादि पदार्थों को उत्पन्न करनेवाले (यम्) जिस जगदीश की (मित्रम्+न) मित्र के समान (प्रशंसन्ति) प्रशंसा स्तुति और प्रार्थना करते हैं, उसकी हम भी पूजा करें ॥२ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर को निज मित्र जान उससे प्रेम करें और उसी की आज्ञा पर चलें ॥२ ॥

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    विषय

    उत्तम विद्वान् के लक्षण, उस की उपासना।

    भावार्थ

    ( हविष्मन्तः जनासः ) हविष उत्तम अन्न वाले मनुष्य जिस प्रकार ( सर्पिः-आ सुतिम् ) घृत से सेचन योग्य अग्नि को ( प्रशस्तिभिः ) उत्तम प्रशंसनीय मन्त्रों से ( प्र शंसन्ति ) प्रशंसा करते अर्थात् उस के गुणों का वर्णन करते हैं उसी प्रकार (यं) जिस को (मित्रं न) मित्रवत् ( सर्पिः-आसुतिम् ) घृतयुक्त अन्न द्वारा सत्कार के योग्य जानकर ( हविष्मन्तः ) अन्न आदि हाथ में लिये जन ( प्रशस्तिभिः ) उत्तम वचनों से ( प्रशंसन्ति ) प्रशंसा करते हैं, उस की तुम भी स्तुति और आदर करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मित्रं न सर्पिरासुतिम्

    पदार्थ

    [१] (यं) = जिस (मित्रं न) = मित्र के समान प्रभु को (हविष्मन्तः जनासः) = हविवाले लोग- दानपूर्वक अदन करनेवाले लोग (प्रशस्तिभिः) = प्रशंसन्ति शंसनात्मक स्तुतिवाक्यों से प्रशंसित करते हैं। हवि के द्वारा ही वस्तुतः प्रभुपूजन होता है। [२] वे प्रभु ('सर्पिरासुतिम्') = [सर्पिः आसूयतेऽनेन इति] हमारे जीवनों में सर्पि को आसुत करनेवाले हैं। 'सृप गतौ' से बनकर 'सर्पिः ' शब्द यहाँ ' दीप्त प्रशस्ति गति' का वाचक है। प्रभु अपने उपासक को इस प्रकार दीप्त गतिवाला बनाते हैं, जैसे एक मित्र मित्र को दीप्त गतिवाला बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हविवाले बनकर प्रभु का शंसन करें। प्रभु हमें मित्र की तरह उत्तम मार्ग से ले चलनेवाले होंगे।

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