ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 11
यं त्वा॑ गो॒पव॑नो गि॒रा चनि॑ष्ठदग्ने अङ्गिरः । स पा॑वक श्रुधी॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वा॒ । गो॒पव॑नः । गि॒रा । चनि॑ष्ठत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒ङ्गि॒रः॒ । सः । पा॒व॒क॒ । श्रु॒धि॒ । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वा गोपवनो गिरा चनिष्ठदग्ने अङ्गिरः । स पावक श्रुधी हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वा । गोपवनः । गिरा । चनिष्ठत् । अग्ने । अङ्गिरः । सः । पावक । श्रुधि । हवम् ॥ ८.७४.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light of the world, dear as breath of life, all purifier, whom the poet visionary of light and the Word celebrates, pray listen to our invocation and song of adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
जो या जगाचा रसस्वरूप व संशोधक आहे त्याचीच स्तुती, प्रार्थना ऋषिलोक करत आलेले आहेत. आम्हीही त्याचे अनुकरण करावे. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अङ्गिरः=सर्वाङ्गानां रसस्वरूप ! हे पावक=शुद्धिकारक ! हे अग्ने=सर्वाधार जगदीश ! यं+त्वा=यं त्वाम् । गोपवनः=रक्षकश्रेष्ठ ऋषिः । गिरा=स्तुत्या । चनिष्ठत्=स्तौति । स त्वम् । हवम्=अस्माकं स्तोत्रम् । श्रुधि=शृणु ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अङ्गिरः) हे सम्पूर्ण जगत् में अङ्गों को रस पहुँचानेवाले (पावक) हे शुद्धिकारक (अग्ने) सर्वाधार जगदीश ! (यं+त्वा) जिस तुझको (गोपवनः) रक्षक श्रेष्ठ तत्ववेत्ता ऋषिगण (गिरा) निज-निज स्तुति द्वारा (चनिष्ठत्) स्तुति करते हैं, (सः) वह तू (हवम्) हम लोगों की प्रार्थना (श्रुधि) सुन ॥११ ॥
भावार्थ
जो इस संसार का रसस्वरूप और संशोधक है, उसी की स्तुति प्रार्थना ऋषिगण करते आए हैं । हम लोग भी उनका अनुकरण करें ॥११ ॥
विषय
परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे (पावक ) पावक, पवित्र करने हारे ! ( यं त्वा ) जिस तुझ को ( गो-पवनः ) वाणी द्वारा अपने को पवित्र करने वाला और ( गोप-वनः ) वाणी के पालक विद्वानों का सेवन करने वाला, पुरुष (गिरा) वाणी द्वारा ( चनिष्ठत् ) तेरा अन्न और वचन द्वारा सत्कार करता है। हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! हे ( अंगिरः ) तेजस्विन् ! ( सः ) वह तू ( हवम् गम श्रुधि ) हमारे आह्वान को श्रवण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
गोपवनः गिरा चनिष्ठत्
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी (अंगिरः) = अंग-प्रत्यंगों में रस का संचार करनेवाले प्रभो ! (यं त्वा) = जिन आपको (गोपवन:) = ज्ञान की वाणियों को पवित्र करनेवाला उपासक (गिरा) = स्तुतिवाणियों के द्वारा (चनिष्ठत्) = प्राप्त करने की कामना करता है। [२] (सः) = वे आप, हे (पावक) = पवित्र करनेवाले प्रभो ! (हवम्) = पुकार को (श्रुधि) = सुनिये।
भावार्थ
भावार्थ-स्तुतिवाणियों के द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करने की कामना करें। प्रभु हमारे जीवन को पवित्र करते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal