ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 14
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - श्रुतर्वण आर्क्षस्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मां च॒त्वार॑ आ॒शव॒: शवि॑ष्ठस्य द्रवि॒त्नव॑: । सु॒रथा॑सो अ॒भि प्रयो॒ वक्ष॒न्वयो॒ न तुग्र्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठमाम् । च॒त्वारः॑ । आ॒शवः॑ । शवि॑ष्ठस्य । द्र॒वि॒त्नवः॑ । सु॒ऽरथा॑सः । अ॒भि । प्रयः॑ । वक्ष॑न् । वयः॑ । न । तुग्र्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मां चत्वार आशव: शविष्ठस्य द्रवित्नव: । सुरथासो अभि प्रयो वक्षन्वयो न तुग्र्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठमाम् । चत्वारः । आशवः । शविष्ठस्य । द्रवित्नवः । सुऽरथासः । अभि । प्रयः । वक्षन् । वयः । न । तुग्र्यम् ॥ ८.७४.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The four fast and smart celebrants of the most potent Agni riding the holy chariot of life may, I pray, bring me food and energy as well as the light and vitality of divine inspiration.
मराठी (1)
भावार्थ
जे कोणी आपल्या ज्ञानेन्द्रियांच्या तत्त्वांना समजून त्यांना कामाला लावतात, ते जगात महा धनाढ्य होतात. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
शविष्ठस्य=परमबलवतः परमात्मनः कृपया । मामुपासकम् । आशवः=स्व-स्व-विषय-पटुतराः । द्रवित्नवः=गमनशीलाः । सुरथासः=शोभनरथाः । चत्वारः=चक्षुरादीनि चत्वारि ज्ञानेन्द्रियाणि । प्रयः=विविधसुखम् । अभि+वक्षन्= अभिवहन्ति । अत्र दृष्टान्तः । वयः+न=यथा नाविकाः । तुग्य्रं=समुद्रे निमग्नं पुरुषं तटमानयन्ति ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(शविष्ठस्य) परम बलवान् परमात्मा की कृपा से प्राप्त (आशवः) अपने-
भावार्थ
अपने विषय में अति निपुण (द्रवित्नवः) आलस्यरहित (सुरथासः) शरीररूप सुन्दर रथयुक्त (चत्वारः) चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और रसनारूप चार ज्ञान इन्द्रिय (माम्) मुझको (प्रयः) विविध सुख (अभि+वक्षन्) पहुँचा रहे हैं । (न) जैसे (वयः) नौकाएँ (तुग्य्रम्) भोज्यादि पदार्थ को इधर-उधर पहुँचाते हैं ॥१४ ॥
टिप्पणी
जो कोई अपने ज्ञानेन्द्रिय के तत्त्वों को समझ उनको काम में लगाते है, वे ही जगत् में परम धनाढ्य होते हैं ॥१४ ॥
विषय
राजा का कर्त्तव्य ज्ञानसेवियों का पालन।
भावार्थ
( शविष्ठस्य ) अति बलशाली, सेनापति के ( चत्वारः ) चार ( द्रविनवः ) वेगवान् ( आशवः ) शीघ्रगामी, अश्वों के सामने वेग से आक्रमण करने वाले, ( सु-स्थासः ) उत्तम महारथी लोग ( तुग्र्यम् वयः न ) शत्रुहिंसक बलवान् पुरुष को वेगवान् अश्वों के समान ( प्रयः अभि वक्षन् ) श्रेष्ठ यानवत् धारण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
आशवः, द्रवित्नवः, सुरथासः
पदार्थ
[१] (मां) = मुझे (शविष्ठस्य) = उस सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न प्रभु के प्रभु से दिये गये (चत्वारः) = 'इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और हृदय रूप चार प्रमुख साधन (तुग्र्य वयः न) = शत्रुसंहारक आयुष्य के समान (प्रयः) = [प्रयस्] उद्योग की (अभि) = ओर वक्षन् प्राप्त कराएँ। इन इन्द्रियों आदि के द्वारा हमारा जीवन काम, क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला हो तथा हम सतत यत्नशील हों- आलस्य से सदा दूर रहें। [२] ये चारों (आशवः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले हों। (द्रवित्नवः) = [द्रु अभिगतौ] शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हों और इस प्रकार हमें प्रभु की ओर ले चलनेवाले हों और (सुरथासः) = शरीररूप रथ को सदा उत्तम रखें।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी 'इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और हृदय' हमारे जीवन को शत्रुसंहारक तथा यत्नशील बनाएँ। इनके द्वारा हमारा यह शरीररथ शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाला व प्रभु की ओर हमें ले चलनेवाला हो।
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