ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इ॒यं ते॒ नव्य॑सी म॒तिरग्ने॒ अधा॑य्य॒स्मदा । मन्द्र॒ सुजा॑त॒ सुक्र॒तोऽमू॑र॒ दस्माति॑थे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । ते॒ । नव्य॑सी । म॒तिः । अग्ने॑ । अधा॑यि । अ॒स्मत् । आ । मन्द्र॑ । सुऽजा॑त । सुक्र॑तो॒ इति॒ सुऽक्र॑तो । अमू॑र । दस्म॑ । अति॑थे ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं ते नव्यसी मतिरग्ने अधाय्यस्मदा । मन्द्र सुजात सुक्रतोऽमूर दस्मातिथे ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । ते । नव्यसी । मतिः । अग्ने । अधायि । अस्मत् । आ । मन्द्र । सुऽजात । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । अमूर । दस्म । अतिथे ॥ ८.७४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light blissful, gloriously manifested, holy and divine in action, wise, majestic and revered as an honourable guest, this adorable light of your wisdom, we pray, may be vested in us.
मराठी (1)
भावार्थ
जे सदैव ईश्वराच्या आज्ञेप्रमाणे चालतात, त्यांना परमात्मा सुबुद्धी देतो, त्यामुळे ते कधी संकटग्रस्त होत नाहीत. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मन्द्र=जीवानन्दकर ! हे सुजात=विख्यात ! हे सुक्रतो=सुकर्मन् ! हे अमूर=सर्वज्ञानमय ! हे दस्म=समस्तविघ्नविनाशक ! हे अतिथे=अतिथिवत् पूज्य ! हे अग्ने=सर्वाधार ईश ! ते=तव कृपया । अस्मत्=अस्मासु । इयं नव्यसी=नव्यतरा । मतिः+आ+अधायि=स्थापिता यया वयं त्वां स्तुमः ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(मन्द्र) हे जीवों के आनन्दकर (सुजात) हे परम विख्यात (सुक्रतो) हे जगत्स्रजनादि शुभकर्मकारक (अमूर) सर्वज्ञानमय (दस्म) सर्वविघ्नविनाशक (अतिथे) हे अतिथिवत् पूज्य (अग्ने) हे सर्वाधार भगवन् ! (ते) आपने अपनी कृपा से (अस्मत्) हम लोगों में (इयं) यह (नव्यसी) नवीनतर (मतिः) कल्याणाबुद्धि (आ+अधायि) स्थापित की है, जिससे हम लोग आपकी स्तुति करते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
जो सदा ईश्वर की आज्ञा पर चलते हैं, उनको परमात्मा सुबुद्धि देते हैं, जिससे वे कभी विपत्तिग्रस्त नहीं होते ॥७ ॥
विषय
परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( मन्द्र ) स्तुत्य, हर्षजनक, आनन्दघन ! हे ( सु-जात) सुख-स्वरूप ! हे (सु-क्रतो) शुभ कर्म और प्रज्ञा वाले ! हे (अमूर) अमूढ़ ! अहिंसक ! हे ( दस्म ) दर्शनीय दुष्टदलन ! हे ( अतिथे ) व्यापक, अ अतिथिवत् पूज्य ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! ( ते ) तेरी ( इयं ) यह ( नव्यसी ) अतिस्तुत्य ( मतिः ) ज्ञानमयी बुद्धि (अस्मत् अधायि) हमारे में स्थिर हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
नव्यसी मतिः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (इयं) = यह (ते) = आपकी (नव्यासी) = अतिशयेन (प्रशस्य मतिः) = मननपूर्वक की गई स्तुति (अस्मद्) = हमारे में [अस्मासु ] (आ अधायि) = सर्वथा निहित होती है। हम सदा आपका स्मरण करते हैं। [२] हे (मन्द्र) = आनन्दमय, (सुजात) = सर्वत्र शुभ को जन्म देनेवाले, (सुक्रतो) = शोमन प्रज्ञान व शक्तिवाले, (अमूर) = अमूढ़ - सब मूढ़ताओं को नष्ट करनेवाले, (दस्म) = दर्शनीय अथवा सब बुराइयों का उपक्षय करनेवाले (अतिथे) = सतत गमनशील प्रभो! आपका स्तवन हम सदा करते हैं। आपका 'मन्द्र' आदि शब्दों से स्तवन करते हुए वैसा ही बनने का प्रयत्न करते हैं। [क] हम अपने जीवनों में उत्तम बातों का विकास करते हुए आनन्दमय बनने का प्रयत्न करते हैं । [ख] मूढ़ न बनकर शोभन प्रज्ञान व शक्ति के सम्पादन के लिए यत्नशील होते हैं तथा [ग] निरन्तर क्रियाशील होते हुए सब बुराइयों का उपक्षय करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें-प्रभु जैसा ही बनने का यत्न करें। उत्तम विकास द्वारा आनन्द को, विषयों के प्रति न मूढ़ बनकर शोभन शक्ति व प्रज्ञान को तथा निरन्तर क्रियाशील बनकर वासनाविलय को प्राप्त करें।
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