ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 8
सा ते॑ अग्ने॒ शंत॑मा॒ चनि॑ष्ठा भवतु प्रि॒या । तया॑ वर्धस्व॒ सुष्टु॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठसा । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । शम्ऽत॑मा । चनि॑ष्ठा । भ॒व॒तु॒ । प्रि॒या । तया॑ । व॒र्ध॒स्व॒ । सुऽस्तु॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सा ते अग्ने शंतमा चनिष्ठा भवतु प्रिया । तया वर्धस्व सुष्टुतः ॥
स्वर रहित पद पाठसा । ते । अग्ने । शम्ऽतमा । चनिष्ठा । भवतु । प्रिया । तया । वर्धस्व । सुऽस्तुतः ॥ ८.७४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, that light and wisdom of yours, most blissful, most delightful, may be dear to us. And let our adorations too be dear to you. Exalted by that, arise and grow and let us grow too.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जर त्याच्या कृपेने नवी व तीव्र बुद्धी उत्पन्न झाली तर त्याद्वारे जगाचे कल्याण व ईश्वराची स्तुती करा. ॥८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वाधार ईश ! ते=तव कृपया । सा=मतिः । शन्तमा=कल्याणकारिणी । चनिष्ठा=बहुधनवती । प्रिया च भवतु । तया+सुष्टुतः=प्रार्थितः । वर्धस्व=अस्मान् वर्धय ॥८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार जगदीश ! (ते) आपकी कृपा से प्राप्त (सा) वह सुमति (शन्तमा) जगत् में कल्याणकारिणी (चनिष्ठा) बहु अन्नवती (प्रिया) और लोकप्रिया (भवतु) होवे, (तया) उस कल्याणी बुद्धि से (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार प्रार्थित होकर तू (वर्धस्व) हम लोगों को बढ़ा ॥८ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! यदि उसकी कृपा से तुममें नवीन और तीव्र बुद्धि उत्पन्न हो, तो उससे जगत् का कल्याण और ईश्वर की स्तुति करो ॥८ ॥
विषय
परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! (ते) तेरी ( सा ) वह ( शं-तमा ) शान्तिदायक ( चनिष्ठा ) उत्तम अन्नवत् भोग्य, सुखदात्री बुद्धि (प्रिया ) प्रीतिकर हो। ( तथा ) उससे तू ( सु-स्तुतः ) उत्तम स्तुतियुक्त होकर ( वर्धस्व ) वृद्धि को प्राप्त हो और हमें भी बढ़ा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
चनिष्ठा [स्तुति]
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सा) = वह (ते) = आपकी हमारे से की जाती हुई [नव्यसी मति: ७] स्तुति (शन्तमा) = अतिशयेन शान्ति को देनेवाली (भवतु) = हो । वह स्तुति (चनिष्ठा) = हमारे सब काम आदि शत्रुओं का संहार करनेवाली हो। यह हमारे हृदयों में प्रेरणा को देनेवाली हो यह हमें अतिशयित आनन्द को देनेवाली हो तथा यह हमें पर्याप्त भोजनों को भी प्राप्त करानेवाली हो, इस प्रकार यह स्तुति (प्रिया) = प्रीतिजनक हो । [२] (तया) = उस स्तुति से (सुष्टुतः) = सम्यक् स्तुत हुए- हुए आप (वर्धस्व) = हमारे हृदयों में बढ़िये । स्तुति हमें आपके गुणों से युक्त करनेवाली हो। आपकी दिव्यता का इस स्तुति द्वारा हमारे में अवतरण हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्तवन से 'शान्ति, प्रभुप्रेरणा, शत्रुसंहार, आनन्द, सब अन्न व प्रीति' प्राप्त होती है। इससे हमारे में दिव्यता का वर्धन होता है।
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