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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - श्रुतर्वण आर्क्षस्य दानस्तुतिः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒हं हु॑वा॒न आ॒र्क्षे श्रु॒तर्व॑णि मद॒च्युति॑ । शर्धां॑सीव स्तुका॒विनां॑ मृ॒क्षा शी॒र्षा च॑तु॒र्णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । हु॒वा॒नः । आ॒र्क्षे । श्रु॒तर्व॑णि । म॒द॒ऽच्युति॑ । शर्धां॑सिऽइव । स्तु॒का॒ऽविना॑म् । मृ॒क्षा । शी॒र्षा । च॒तु॒र्णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं हुवान आर्क्षे श्रुतर्वणि मदच्युति । शर्धांसीव स्तुकाविनां मृक्षा शीर्षा चतुर्णाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । हुवानः । आर्क्षे । श्रुतर्वणि । मदऽच्युति । शर्धांसिऽइव । स्तुकाऽविनाम् । मृक्षा । शीर्षा । चतुर्णाम् ॥ ८.७४.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the good of people in general, for the learned, and for the joy of soma against the intoxication of pride, I invoke Agni as well as the light and powers of divinity to come and sanctify the heart and head of all the four classes of initiated people of the sacred hair.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अहं = या पदाने केवळ एका ऋषीचा बोध होत नाही. परंतु जो कोणी ईश्वराची प्रार्थना करतो त्या सर्वांसाठी अहं पद आलेले आहे. याचा आशय असा की, प्रत्येक ज्ञानी जनाने मानवजातीच्या कल्याणासाठी ईश्वराची प्रार्थना करावी, ज्यामुळे मनुष्याच्या ज्ञानेन्द्रियांनी ज्ञानाच्या प्राप्तीसाठी प्रयत्न करावा. ॥१३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अहमुपासकः । आर्क्षे=सामान्येन सर्वेषां मनुष्याणां निमित्ते । श्रुतर्वणि=श्रोतॄणां निमित्ते । मदच्युति=आनन्दानां च्योतनाय । हुवानः=परमात्मानं स्तुवन्नस्मि । स्तुकाविनां= विज्ञानादिसहितानाम् । चतुर्णाम्=चक्षुरादीनाम् । शीर्षा=शिरांसि । शर्धांसि इव=बलवन्ति इव भवन्तु । तथा मृक्षा=शुद्धानि भवन्तु ॥१३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अहम्) मैं उपासक (आर्क्षे) सामान्यतया मनुष्य के निमित्त (श्रुतर्वणि) श्रोतृजनों के निमित्त और (मदच्युति) मनुष्यजाति में आनन्द की वर्षा के लिये (हुवानः) ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ और मनुष्यमात्र के जो (स्तुकाविनाम्) ज्ञानविज्ञानसहित (चतुर्णाम्) नयन, कर्ण, घ्राण और रसना ये चारों ज्ञानेन्द्रिय हैं, उनके (शीर्षा) शिर (शर्धांसि+इव) परम बलिष्ठ होवें और (मृक्षा) शुद्ध और पवित्र होवें ॥१३ ॥

    भावार्थ

    अहम्=इस पद से केवल एक ऋषि का बोध नहीं, किन्तु जो कोई ईश्वर से प्रार्थना करे, उस सबके लिये अहम् पद आया है । इसका आशय यह है कि प्रत्येक ज्ञानी जन अपनी जाति के कल्याण के लिये ईश्वर से प्रार्थना करे, जिससे मनुष्यमात्र के ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति के लिये चेष्टा करें ॥१३ ॥

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    विषय

    उत्तम राजा की दान स्तुति।

    भावार्थ

    ( आर्क्षे ) शत्रु को अपने प्रताप में भून देने वाले ( श्रुतर्वणि ) प्रसिद्ध अश्व सैन्य के स्वामी ( मदच्युति ) शत्रु के मद को दूर करने में समर्थ वीर पुरुषों के अधीन ( स्तुकाविनां ) बालों की ग्रन्थि, फुन्दों वाले (चतुर्णाम्) चारों वर्णों वा चार घोड़ों के तुल्य या सेना के चारों अंगों के वीरों के ( मृक्षा ) अति दीप्त, चमचमाते ( शीर्षा ) शिर वा प्रमुख नायक जन ( शर्धांसि इव ) मानो उनके मुख्य बल हैं। अर्थात् वीरों के शिरों के बाल और मूंछ, दाड़ी आदि वीरत्व द्योतक चिन्ह हैं, मानो वे ही उनके बल हैं, वे बालों से सिंहों के समान भयानक प्रतीत होते हैं। केशान् शीर्षन् यशसे श्रियै शिखा सिंहस्य लोम त्विषिरिन्द्रियाणि। यजु० १९। १२॥ उनको ( अहं ) मैं ( हुवानः ) अन्न देने वा स्वीकार करने वाला होऊं। ( २ ) इसी प्रकार ( आर्क्षे = ऋचः सनोतिइति ऋक्षः स्वार्थेऽण् ) विद्वान् वेदज्ञ ( श्रुतर्वणि ) विश्रुत, विद्वान् शिष्यों वाले ( मद-च्युति ) हर्षदायक गुरु के अधीन ( स्तुकाविनां ) बालों के गुच्छों वाले ( चतुर्णाम् ) चारों वर्णों के विद्यार्थियों के ( मृक्षा ) घुरे से मुंडे हुए नाना ( शीर्षा ) शिर अर्थात् शिरों वाले अनेक शिष्य गण उन के ( शर्धांसि इव ) सेना या फौज के समान हों। उनको मैं ( हुवानः ) अन्न भिक्षादि देने हारा होऊं। विद्वान् के अधीन सैंकड़ों शिष्य उसकी सेना के समान हैं। जैसे धौम्य के पांच सो शिष्य थे। राजा आदि उन को पालें।

    टिप्पणी

    ‘वृक्षा शीर्षा’ इति सायणाभिमतः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आर्क्ष - श्रुतर्वा मदच्युत्

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (अहं) = मैं (आर्क्षे) = गतिशील पुरुष में, (श्रुतर्वणि) = ज्ञान के प्रति चलनेवाले व्यक्ति में तथा (मदच्युति) = अभिमान को छोड़नेवाले पुरुष में (हुवान:) = हूयमान होता हुआ - इनसे आराधित होता हुआ - (चतुर्णाम्) = 'काम-क्रोध-लोभ-मोह' इन चारों के (शीर्षा) = सिरों का (मृक्षा) = सफाया कर डालता हूँ। इन काम आदि चारों को ही समाप्त कर डालता हूँ। [२] मैं इसप्रकार इन्हें नष्ट कर देता हूँ, (इव) = जैसेकि (स्तुकाविनां) = वृषभों के [बैलों के] शर्धांसि बलों को कोई समाप्त कर देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का सच्चा उपासक 'गतिशील, ज्ञानप्रिय व निरभिमान' होता है। प्रभु इसके 'काम-क्रोध-लोभ-मोह' को समाप्त कर देते हैं।

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