ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 12
मा नो॑ अ॒स्मिन्म॑हाध॒ने परा॑ वर्ग्भार॒भृद्य॑था । सं॒वर्गं॒ सं र॒यिं ज॑य ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । अ॒स्मिन् । म॒हा॒ऽध॒ने । परा॑ । वर्क् । भा॒र॒ऽभृत् । य॒था॒ । स॒म्ऽवर्ग॑म् । सम् । र॒यिम् । ज॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो अस्मिन्महाधने परा वर्ग्भारभृद्यथा । संवर्गं सं रयिं जय ॥
स्वर रहित पद पाठमा । नः । अस्मिन् । महाऽधने । परा । वर्क् । भारऽभृत् । यथा । सम्ऽवर्गम् । सम् । रयिम् । जय ॥ ८.७५.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, do not abandon us in this great battle of life like a tired burden bearer throwing off his burden. Instead, win holy wealth like the yajaka gathering sacred grass for the vedi to perform the yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
महाधन = या जगात जिकडे पाहतो तिकडे संपत्तीचा अंत लागत नाही, तरीही माणूस अज्ञानवश दुर्नीतीमुळे दु:ख ओढून घेत आहे. त्यासाठी ईश्वराने त्याचे रक्षण करावे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे ईश ! अस्मिन् महाधने=संसारे । नः=अस्मान् । असहायान् । मा+परा+वर्क्=मा त्याक्षीः । यथा भारभृद् भारं त्यजति तद्वत् । त्वं संवर्गं=अच्छिद्यमानम् । रयिं=नित्यधनम् । सं+जय=देहि ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश ! (अस्मिन्+महाधने) इस नाना धनयुक्त संसार में (नः) हम लोगों को असहाय (मा+परा+वर्क्) मत छोड़, यथा जैसे (भारभृत्) भारवाही भार को त्यागता है, तद्वत्, किन्तु (संवर्गं) अच्छिद्यमान अर्थात् चिरस्थायी (रयिं) मुक्तरूप धन (संजय) दे ॥१२ ॥
भावार्थ
महाधन=इस संसार में जिस ओर देखते हैं, सम्पत्तियों का अन्त नहीं पाते, तथापि मनुष्य अज्ञानवश दुर्नीति के कारण दुःख पा रहा है, इससे ईश्वर इसकी रक्षा करे ॥१२ ॥
विषय
संकट में भी राजा प्रजा का साथ न छोड़े।
भावार्थ
( यथा भारभृत् ) बोझा ढोने वाला जिस प्रकार थक कर अन्त में अपने बोझे को दूर फेंक देता है उसी प्रकार हे नायक कहीं ( महाधने ) इस महासंग्राम में ( नः मा परा वकू ) हमें भार सा जान कर तू मत त्याग देना। अथवा ( यथा भारभृत् ) जिस प्रकार पालन पोषण योग्य स्त्रीपुत्र दासादि का पोषक स्वामी अपने इन पोष्य वर्ग को ( महा-धने ) अति सम्पन्नता में नहीं त्यागता उसी प्रकार तू भी संग्राम या अति ऐश्वर्य दशा में हमें मत त्याग। वल्कि तू ( संवर्गं ) उत्तम सहयोगी गण और ( रयिं ) ऐश्वर्य का गुणों और पराक्रमों से.. ( जय ) विजय कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
सं वर्णं, सं रयिं [जय]
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (अस्मिन्) = इस (महाधने) = महान् संग्राम में (नः) = हमें (मा परावर्ग) = दूर छोड़ मत दीजिए। (यथा) = जैसे (भारमृत्) = भार को उठानेवाला अन्त में भार को छोड़ देता है, इसी प्रकार हमें आप छोड़ मत दीजिये । हम आपके भारभूत न बन जाएँ। [२] हे प्रभो! आप हमारे लिये (सं वर्गम्) = सम्यक् शत्रुओं के वर्जन का जय-विजय कीजिये। यहाँ हमारे लिये (रयिम्) = ऐश्वर्य को (सं जय) = सम्यक् जीतिये । हम आपके अनुग्रह से सम्यक् शत्रुओं का विजय करें तथा ऐश्वर्यों को प्राप्त करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमको कामादि शत्रुओं से विजय प्राप्त कराकर हमें ऐश्वर्य युक्त करता है।
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