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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विरुपः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा न॑: समस्य दू॒ढ्य१॒॑: परि॑द्वेषसो अंह॒तिः । ऊ॒र्मिर्न नाव॒मा व॑धीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । स॒म॒स्य॒ । दुः॒ऽध्यः॑ । परि॑ऽद्वेषसः । अं॒ह॒तिः । ऊ॒र्मिः । न । नाव॑म् । आ । व॒धी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा न: समस्य दूढ्य१: परिद्वेषसो अंहतिः । ऊर्मिर्न नावमा वधीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । नः । समस्य । दुःऽध्यः । परिऽद्वेषसः । अंहतिः । ऊर्मिः । न । नावम् । आ । वधीत् ॥ ८.७५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let not the malevolent tyranny of the jealous smite us like billows of the sea striking the ship.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दुर्बुद्धियुक्त व द्वेषी पुरुषांपासून आम्ही सदैव पृथक राहावे. त्यांचा संसर्ग आम्हाला कुपथावर घेऊन जाऊन नष्ट करता कामा नये. जसे कुपित समुद्र - तरंग जहाजांना तोडून बुडवून टाकतात. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    समस्य=समस्तस्य । दूढ्यः=दुर्धियः । परिद्वेषसः=परितो द्विषतः । जनस्य । अंहतिः=हननसाधनं तत्कृतपापं वा । नः=अस्मान् । मा+वधीत् । अत्र दृष्टान्तः । ऊर्मिर्न=यथा समुद्रतरङ्गः । नावम् ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (समस्य) समस्त (दूढ्यः) दुर्बुद्धियों और (परिद्वेषसः) जगत् के महा द्वेषियों का (अंहतिः) हननास्त्र अथवा पाप (नः) हम लोगों का (म+आवधीत्) वध न करे । (न) जैसे (ऊर्मिः) समुद्रतरङ्ग (नावम्) नौकाओं को छिन्न-भिन्न कर नष्ट कर देती है ॥९ ॥

    भावार्थ

    दुर्बुद्धियों और द्वेषी पुरुषों से हम सदा पृथक् रहें । ऐसा न हो कि उनका संसर्ग हम लोगों को भी कुपथ में ले जाकर नष्ट कर दे । जैसे कुपित समुद्रतरङ्ग जहाजों को तोड़कर डुबा देता है ॥९ ॥

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    विषय

    बुरे लोगों का पापसंग हमें पीड़ित न करे।

    भावार्थ

    ( ऊर्मिः नावं न ) जलतरंग जिस प्रकार नौका का आघात करती है उस प्रकार ( समस्य ) समस्त ( दूढ्यः ) दुष्ट बुद्धि वाले (परि द्वेषसः ) सब प्रकार से द्वेषी पुरुष की ( अंहतिः ) पाप बुद्धि वा आघात पहुंचाने की दुरभिसन्धि ( नः ) हमें ( मा वधीत् ) कभी न पीड़ित करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    ऊर्मिः न नावम्

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमें (परिद्वेषसः) = चारों ओर द्वेषवाले सबके साथ द्वेष करनेवाले (समस्य) = सब (दूढ्य:) = दुर्बुद्धि पुरुष के (अंहतिः) = पाप (मा आवधीत्) = मत नष्ट करनेवाले हों। हम भी द्वेष की वृत्ति में पड़कर दुर्बुद्धि न बन जाएँ। [२] ये द्वेष की भावनाएँ इसी प्रकार हमारा नाश करनेवाली होती हैं, (न) = जैसे (ऊर्मिः) = तरंग (नावम्) = नाव को ।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्वेष करनेवालों से भी हम द्वेष न करें। यह द्वेष हमारी शरीररूप नाव को भिन्न कर देगा। तब संसारसमुद्र को कैसे तैरेंगे ?

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