ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 13
अ॒न्यम॒स्मद्भि॒या इ॒यमग्ने॒ सिष॑क्तु दु॒च्छुना॑ । वर्धा॑ नो॒ अम॑व॒च्छव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्यम् । अ॒स्मत् । भि॒यै । इ॒यम् । अग्ने॑ । सिस॑क्तु । दु॒च्छुना॑ । वर्ध॑ । नः॒ । अम॑ऽवत् । शवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यमस्मद्भिया इयमग्ने सिषक्तु दुच्छुना । वर्धा नो अमवच्छव: ॥
स्वर रहित पद पाठअन्यम् । अस्मत् । भियै । इयम् । अग्ने । सिसक्तु । दुच्छुना । वर्ध । नः । अमऽवत् । शवः ॥ ८.७५.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, let this evil and calamity fall upon something else opposed to us and our life and health and frighten all such things away. Pray promote our inward strength and courage like our steadfast patience and vitality.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ईश! तुझा कोप महामारी इत्यादी रोग आमच्यावर बरसता कामा नयेत; परंतु जे जगाचे शत्रू असून तुझी स्तुती करत नाहीत त्यांना भय दाखव. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अग्ने=हे भगवन् ! इयं+दुच्छुना=विस्फोटकादिमहामारी । भियै=भयाय । अस्मद्=अन्यं स्तुतिरहितं पुरुषम् । सिषक्तु=सेवताम् । नः=अस्मभ्यम् । अमवत्=महाबलोपेतम् । शवः=धैर्य्यम् । वर्ध=वर्धय देहि ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे भगवन् ! (इयम्) यह (दुच्छुना) विस्फोटक हैजा, प्लेग आदि महामारी अन्य आपकी स्तुति प्रार्थना से रहित चोर डाकू आदिकों को (भियै+सिषक्तु) भय दे और नाश करे किन्तु (अस्मत्) जो हम लोग आपकी कीर्ति गाते हैं, उनको न डरावें । (नः) हम लोगों के (शवः) आन्तरिक बल को (अमवत्) दृढ़, धैर्य्ययुक्त (वर्ध) कर और बढ़ा ॥१३ ॥
भावार्थ
हे ईश ! तेरा कोप महामारी आदि रोग हम लोगों पर न आ गिरे, किन्तु जो जगत् के शत्रु और तेरी स्तुति आदि से रहित हैं, उनको भय दिखलावे ॥१३ ॥
विषय
सेनापति के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! नायक सेनापते ! ( इयम् ) यह ( दुच्छुना ) दुखदायिनी सेना ( अस्मत् अन्यम् ) हमारे से दूसरे शत्रु को ( भिय सिषक्तु ) भयभीत करे। ( नः अभवत् ) तू हमारे बलयुक्त ( शवः ) सैन्य बल को ( वर्ध ) बढ़ा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
अमवत् शवः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (इयम्) = यह (दुच्छुना) = दुष्ट गति [दुराचरण] (अस्मत् अन्यम्) = हमारे से भिन्न ही किसी व्यक्ति को (भिया सिषक्तु) = भय के साथ सेवन करे। हमारे से यह सदा दूर रहे। दूसरा हमारे साथ अशुभ व्यवहार भी करे, तो भी हम दुष्ट गति को स्वीकार न करें। [२] हे प्रभो ! आप (नः) = हमारे (अमवत्) = शक्तियुक्त (शवः) = वेग को-स्फूर्ति के साथ कार्य करने की प्रवृत्ति को (वर्धा) = बढ़ाइये। सदा स्फूर्ति के साथ कर्त्तव्यकर्मों को करते हुए हम अशुभाचरण से बचे रहें।
भावार्थ
भावार्थ- दुष्ट आचरण हमें छोड़ जाये। शुभ आचरण हमें सदा सबल बनाये रखें।
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