ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 14
यस्याजु॑षन्नम॒स्विन॒: शमी॒मदु॑र्मखस्य वा । तं घेद॒ग्निर्वृ॒धाव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । अजु॑षत् । न॒म॒स्विनः॑ । शमी॑म् । अदुः॑ऽमखस्य । वा॒ । तम् । घ॒ । इत् । अ॒ग्निः । वृ॒धा । अ॒व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्याजुषन्नमस्विन: शमीमदुर्मखस्य वा । तं घेदग्निर्वृधावति ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । अजुषत् । नमस्विनः । शमीम् । अदुःऽमखस्य । वा । तम् । घ । इत् । अग्निः । वृधा । अवति ॥ ८.७५.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni loves and joins the yajnic efforts of the man of humility and generous offerings who, also, shuns negative and unproductive social acts. Such a man, indeed, Agni protects, promotes and advances in life.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक शुभ कर्मात विद्वानांचा सत्कार व त्यांच्याकडून शुद्ध कर्म करवावे तेव्हाच कल्याण होते. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यस्य+नमस्विनः=यस्य+ईश्वरोपासकस्य । अदुर्मखस्य वा=अदुष्टयागस्य वा । शमीं=कर्म । विद्वद्गणः । अजुषत्=सेवते । तं+घ+इत्=तमेव पुरुषम् । अग्निः परमात्मदेवः । वृधा+अवति=वृद्ध्या रक्षति ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यस्य+नमस्विनः) जिस परमात्मभक्त के (वा) अथवा (अदुर्मखस्य) अच्छे शुभ कर्म करनेवाले के (शमीम्) कर्म में विद्वद्गण (अजुषत्) जाते और उसके कर्म को शुद्ध करवाते (तं+घ+इत्) उसी पुरुष को (अग्निः) परमात्मा (वृधा) सर्व वस्तु की वृद्धि करके (अवति) बचाता है ॥१४ ॥
भावार्थ
प्रत्येक शुभकर्म में विद्वानों का सत्कार और उनसे शुद्धकर्म करावे, तभी कल्याण होता है ॥१४ ॥
विषय
सेनापति के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यस्य) जिस (नमस्विनः) विनय, अन्न और शत्रु को नमानेवाले वज्र या वीर्य से सम्पन्न ( अदुर्मखस्य ) अदोषयुक्त यज्ञ, वा अदुःखदायी, अच्छिद्र, निस्रुटि कार्यकर्त्ता के ( शमीम् जुषत् ) कर्म को प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लेता है, (तं घ इत् ) उसकी ही (अग्निः) वह उत्तम तेजस्वी नायक ( वृधा अवति ) वृद्धियुक्त सम्पदा से रक्षा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
नमोयुक्त+अदुर्मख
पदार्थ
(यस्य) = जिस (नमस्विनः) = नमनशील (वा) = तथा (अदुर्मखस्य) = अदुष्ट यज्ञोंवाले उपासक के (शमीम्) = शान्तभाव से किये जानेवाले कर्मों को (अजुषत्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता है, अर्थात् जिस नम्र यज्ञशील पुरुष के शान्तकर्म प्रभु को प्रीणित करते हैं, (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (तम्) = उस उपासक को (धारत्) = निश्चय से (वृधा अवति) = वृद्धि के द्वारा प्रीणित करते हैं । (२) हम कर्मों द्वारा ही प्रभु का प्रीणन कर पाते हैं। ऐसा करने पर प्रभु हमारी वृद्धि का कारण बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम नम्र यज्ञशील बनकर कर्त्तव्यकर्मों में लगे रहें। यही प्रभु के आराधन का मार्ग है। प्रभु हमारा वर्धन करेंगे।
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