ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
त्वं ह॒ यद्य॑विष्ठ्य॒ सह॑सः सूनवाहुत । ऋ॒तावा॑ य॒ज्ञियो॒ भुव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । यत् । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । आ॒ऽहु॒त॒ । ऋ॒तऽवा॑ । य॒ज्ञियः॑ । भुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह यद्यविष्ठ्य सहसः सूनवाहुत । ऋतावा यज्ञियो भुव: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । ह । यत् । यविष्ठ्य । सहसः । सूनो इति । आऽहुत । ऋतऽवा । यज्ञियः । भुवः ॥ ८.७५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You alone, most youthful imperishable power, creator of strength and energy, we invoke, you are the one adorable, giver and keeper of the cosmic law of truth and rectitude.
मराठी (1)
भावार्थ
यविष्ठ्य (परमात्मा) - जीवाला, जग व सूर्य इत्यादी लोकांशी परस्पर संयोग करणारा असल्यामुळे तो यविष्ठ्य म्हणविला जातो. आहुत; या सर्वांनी उत्पन्न करून परमेश्वराने त्यात स्वत:ला होम केलेले आहे असे वर्णन बहुधा येते. त्यासाठी तो आहुत आहे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
स एव प्रार्थ्यते ।
पदार्थः
हे यविष्ठ्य=जगतो मिश्रणकारिन् ! हे सहसः+सूनो=सहसा बलेन यदुत्पाद्यते तत् सहो जगत् । सूते जनयतीति सूनुर्जनयिता । हे जगतो जनयितः ! हे आहुत=संसारप्रविष्ट ! यद्=यस्मात् । त्वं+ह । तावा=सत्यवान् । यज्ञियश्च=पूज्यश्च । भुवः=भवसि । अतः सर्वत्र प्रार्थ्यसे ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
वही पुनः प्रार्थित होता है ।
पदार्थ
(यविष्ठ) हे जगन्मिश्रणकारी (सहसः+सूनो) हे जगदुत्पादक (आहुत) हे संसार में प्रविष्ट ! (यत्) जिस कारण (त्वम्+ह) तू (ऋत+वा) सत्यवान् और (यज्ञियः+भुवः) परम पूज्य है, अतः तू सर्वत्र प्रार्थित होता है ॥३ ॥
भावार्थ
यविष्ठ्य=जीव से जगत् को और सूर्य्यादि लोकों को परस्पर मिलानेवाला होने से वह यविष्ठ्य कहाता है । आहुत, इसको उत्पन्न कर परमात्मा ने इसमें अपने को होम कर दिया, ऐसा वर्णन बहुधा आता है, अतः वह आहुत है । अन्यत् स्पष्ट है ॥३ ॥
विषय
ज्ञान, बल और धन इन का त्रिविध पति अग्नि।
भावार्थ
हे ( यविष्ठ्य ) युवतम ! सब में अधिक जवान्, बलवान् पूज्य ! हे ( सहसः सूनो ) बल के सञ्चालक, उत्पादक ! हे (आहुत ) सब से स्वीकृत, सब के द्वारा अपना २ अंश देकर समृद्ध किये हुए ! ( त्वं ह ) तू ही ( ऋतवा ) सत्य न्याय का पालक और ( यज्ञियः भुवः ) सर्व-पूजार्ह, दान योग्य सत्पात्र हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
ऋतावा
पदार्थ
हे (यविष्ठ्य) = युवतमा, (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज ! आहुत-सर्व स्वीकृत प्रभो ! (त्वं ह) = आप ही (ऋतावा) = सत्य न्याय के पालक तथा (यज्ञियः भुवः) = दान योग्य सुपात्र हो ।
भावार्थ
भावार्थ- वह परमात्मा सत्य-न्याय के पालक हैं।
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