ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 4
अ॒यम॒ग्निः स॑ह॒स्रिणो॒ वाज॑स्य श॒तिन॒स्पति॑: । मू॒र्धा क॒वी र॑यी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्निः । स॒ह॒स्रिणः॑ । वाज॑स्य । श॒तिनः॑ । पतिः॑ । मू॒र्धा । क॒विः । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निः सहस्रिणो वाजस्य शतिनस्पति: । मूर्धा कवी रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्निः । सहस्रिणः । वाजस्य । शतिनः । पतिः । मूर्धा । कविः । रयीणाम् ॥ ८.७५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
This Agni is the protector and promoter of a hundred and thousand forms and degrees of food, energy, advancement and victories of wealth, honour and excellence of the world, lord supreme and all time visionary and omniscient creator and poetic prophet and teacher.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमात्मा संपूर्ण ज्ञान व धनाचा अधिपती आहे त्याने आम्हाला धन व ज्ञान द्यावे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अयमग्निः शतिनः सहस्रिणश्चोक्तसंख्योपेतस्य वाजस्यान्नस्य पतिः स्वामी मूर्धा शिरोवदुन्नतः श्रेष्ठः कविर्मेधावी । रयीणां=धनानामपि पतिरिति शेषः । तदुभयं प्रयच्छत्वित्यर्थः ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अयम्+अग्निः) यह सर्वत्र प्रसिद्ध जगदाधार जगदीश (शतिनः) शत संख्याओं से युक्त (सहस्रिणः) सहस्र पदार्थों से युक्त (वाजस्य) धन और विज्ञान का पति है । (रयीणाम्) सर्व प्रकार की सत्ताओं का भी वही अधिपति है और (मूर्धा) सम्पूर्ण जगत् का शिर और (कविः) परम विज्ञानी है ॥४ ॥
भावार्थ
जो परमात्मा सम्पूर्ण ज्ञान और धन का अधिपति है, वह हमको धन और ज्ञान दे ॥४ ॥
विषय
ज्ञान, बल और धन इन का त्रिविध पति अग्नि।
भावार्थ
( अयम् अग्निः ) यह ज्ञानवान् और तेजस्वी पुरुष ( सहस्त्रिणः वाजस्य ) सहस्रों संख्या से युक्त ज्ञान, सैन्य और ऐश्वर्य का और ( शतिनः वाजस्य ) सैकड़ों की संख्या वाले ज्ञान, सैन्य और ऐश्वर्य का ( पतिः ) पालक और ( कविः ) क्रान्तदर्शी ( रयीणाम् मूर्धा ) ऐश्वर्यवानों का भी शिरःस्थानीय, प्रमुख हो। सहस्रों, सैकड़ों संख्या वाला ज्ञान, वेदादि शास्त्र, जिन की ग्रन्थ गणना शत कण्डिका, सहस्र मन्त्र वा श्लोकादि से होती है। सैन्य में भी शतपति, सहस्रपति के अधीन इतने २ सैन्य भट होते हैं। ऐश्वर्यों में ग्रामों की संख्या वा स्वर्णमुद्राओं की संख्या ली जाती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
'सहस्त्री शती' वाज
पदार्थ
[१] (अयम् अग्निः) = ये अग्रणी प्रभु (वाजस्य) = शक्ति के (पतिः) = स्वामी हैं-रक्षक हैं। उस शक्ति के स्वामी हैं, जो (सहस्त्रिणः) = [सहस्] हमारे जीवनों को आनन्दमय बनाती है तथा (शतिन:) = सौ वर्ष तक जीवन को बड़ा ठीक बनाए रखती है। [२] वे (कविः) = सर्वज्ञ प्रभु (रयीणां मूर्धा) = सब ऐश्वर्यों के शिखर हैं। प्रभु ही सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। सब धनों के विजेता प्रभु ही हमारे लिए उस-उस ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें वह शक्ति प्राप्त कराते हैं, जो हमारे जीवनों को आनन्दमय व दीर्घ बनाती है प्रभु ही सर्वज्ञ व सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं।
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