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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
    74

    ये शालाः॑ परि॒नृत्य॑न्ति सा॒यं ग॑र्दभना॒दिनः॑। कु॒सूला॒ ये च॑ कुक्षि॒लाः क॑कु॒भाः क॒रुमाः॒ स्रिमाः॑। तानो॑षधे॒ त्वं ग॒न्धेन॑ विषू॒चीना॒न्वि ना॑शय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । शाला॑: । प॒रि॒ऽनृत्य॑न्ति । सा॒यम्। ग॒र्द॒भ॒ऽना॒दिन॑: । कु॒सूला॑: । ये । च॒ । कु॒क्षि॒ला: । क॒कु॒भा: । क॒रुमा॑: । स्त्रि॒मा॑: । तान् । ओ॒ष॒धे॒ । त्वम् । ग॒न्धेन॑ । वि॒षू॒चीना॑न् । वि । ना॒श॒य॒ ॥६.१०॥ १४


    स्वर रहित मन्त्र

    ये शालाः परिनृत्यन्ति सायं गर्दभनादिनः। कुसूला ये च कुक्षिलाः ककुभाः करुमाः स्रिमाः। तानोषधे त्वं गन्धेन विषूचीनान्वि नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । शाला: । परिऽनृत्यन्ति । सायम्। गर्दभऽनादिन: । कुसूला: । ये । च । कुक्षिला: । ककुभा: । करुमा: । स्त्रिमा: । तान् । ओषधे । त्वम् । गन्धेन । विषूचीनान् । वि । नाशय ॥६.१०॥ १४

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गर्भ की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (गर्दभनादिनः) गधे समान नाद करनेवाले [कीड़े] (सायम्) सायंकाल में (शालाः) घरों के (परिनृत्यन्ति) आस-पास नाचते हैं। (च) और (ये) जो (कुसूलाः) चिपट जानेवाले [अथवा अन्न के कोठे के समान आकारवाले], (कुक्षिलाः) बड़े पेटवाले, (ककुभाः) शरीर में टेढ़े दिखाई देनेवाले, (करुमाः) मन को पीड़ा देनेवाले, (स्रिमाः) चलने फिरनेवाले [वा सुखानेवाले] हैं, (ओषधे) हे ओषधि ! [वैद्य] (त्वम्) तू (गन्धेन) गन्ध से (तान्) उन (विषूचीनान्) फैले हुए [कीड़ों] को (वि नाशय) विनष्ट कर दे ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य कस्तूरी, केशर, कपूर, अगर, तगर, आदि हव्य पदार्थों का अग्नि में होम करके रोगजनक क्रिमियों को घर से नाश करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(ये) मशकादयः क्रमयः (शालाः) गृहाणि (परिनृत्यन्ति) परितो नृत्यन्ति (सायम्) दिनान्ते (गर्दभनादिनः) गर्दभसमानघोषयुक्ताः (कुसूलाः) खर्जिपिञ्जादिभ्य ऊरोलचौ। उ० ४।९०। कुस श्लेषे-ऊल। श्लेषणशीलाः। यद्वा, कुशूलाकृतयः, अन्नकोष्ठकाकाराः (ये) (च) (कुक्षिलाः) ष्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। कुष निष्कर्षे−क्सि। प्राणिस्थादातो लजन्यतरस्याम्। पा० ५।२।९६। बाहुलकात् लच् मत्वर्थे। बृहत्कुक्षयः। महोदराः (ककुभाः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। क+कु+भा दीप्तौ-क। के देहे कु कुत्सितं भान्ति ये ते (करुमाः) कच दीप्तौ-ड। अविसिविशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। रुङ् वधे-मन्, कित्। कं मनो रवन्ते ये। मनःपीडकाः (स्रिमाः) अविसिवि०। उ० १।१४४। स्रिवु गतिशोषणयोः-मन्, कित्। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। वलोपः। गतिशीलाः। शोषकाः (तान्) क्रमीन् (ओषधे) (त्वम्) (गन्धेन) हव्यद्रव्यगन्धेन (विषूचीनान्) अ० ३।७।१। विषु+अञ्चतेः-क्विन्, ख प्रत्ययः। सर्वतोगतीन् (विनाशय) ॥

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    विषय

    कृमिविनाश

    पदार्थ

    १. (ये) = जो भी रोगकृमि (सायं गर्दभनादिनः) = सायं गधे की भाँति शब्द करते हुए (शाला: परिनृत्यन्ति) = गृहों के चारों ओर नृत्य-सा करते प्रतीत होते हैं, (ये कुसुला:) = जो कुसूल की आकृतिवाले हैं अथवा चिपट जानेवाले हैं[कुस संश्लेषणे], (च) = और (कुक्षिला:) = बृहत् कुक्षि [बड़े पेटवाले] हैं, (ककुभा:) = अर्जुनवृक्ष की भाँति भयंकर आकृतिवाले हैं, (करुमा:) = [कम् रवन्ते रुवावधे] सुख का विनाश करनेवाले, (स्त्रिमा:) = [सिवु शोषणे] रुधिर का शोषण करनेवाले हैं, (तान्) = उन कृमियों को हे (ओषधे) = गौर व पीत सर्षप (त्वम्) = तु (गन्धेन) = गन्ध के द्वारा-अग्निहोत्र की अग्नि में पड़कर फैलनेवाली गन्ध के द्वारा (विशूचीनां विनाशय) = विरुद्ध दिशाओं में भगाकर नष्ट कर दे।

    भावार्थ

    स्वास्थ्य के लिए सायं प्रबल हो उठनेवाले, विविध कृमियों का विनाश आवश्यक है। हव्यद्रव्य के गन्ध से इनका विनाश करना इष्ट है। हमारे घरों के पास ये कृमि न रहें।

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    भाषार्थ

    (ये) जो कीट (गर्दभनादिनः) गदहों की तरह नाद करते हुए (सायम्) सायंकाल (शालाः) शालाओं के (परि) सब ओर (नृत्यन्ति१) नाच करते हैं। तथा (ये च) और जो (कुसूल आदि) कुसूल, कुक्षिल, ककुभ, करूप, स्रिम नामक कीट हैं (तान्) उन (विषूचीनान्) सब ओर गति करने वालों को (ओषधे) हे ओषधि ? (त्वम्) तू (गन्धेन) निज गन्ध द्वारा (विनाशय) विनष्ट कर।

    टिप्पणी

    [सायंकाल शालाओं में नाद करने वाले विशेषतया मच्छर होते हैं। इन के नाद कानों को कटु अनुभूत होते हैं, अतः घृणा की दृष्टि से इन्हें "गर्दभनादिनः" कहा है। गर्दभ का नाद कर्णकटु होता है। कुसूल आदि नाम भिन्न-भिन्न कीटों के हैं, जो कि सायंकाल प्रकट हो जाते हैं। इन कीटों या क्रिमियों के लिये देखो अथर्व० (२।३१।१-५; २।३२।१-६)। इन में से मच्छरों का विनाश ओषधि के गन्ध द्वारा दर्शाया है। औषधि को अग्नि में जला कर उस के धूम२ द्वारा इन मच्छरों के विनाश का विधान किया है। इस से प्रतीत होता है कि ये सब कीट रोगकीटाणु [germs] ही नहीं हैं। ओषधि का नाम तो मन्त्र में नहीं दिया। सम्भवतः ओषधि कृष्ण और पिङ्ग [पीत] वज ही है। वज= सरसों के दाने। अथर्व० (४।३७।२) में "अजशृङ्गी" ओषधि का नाम पठित है जिस के गन्ध द्वारा रक्षः आदि का विनाश कहा है] [१. रात में मच्छर नाद करते हुए इधर-उधर उड़ते हैं। मानो वे गाते हुए नृत्य करते हैं। २. यथा "मशकार्थो धूमः]

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    विषय

    कन्या के लिये अयोग्य और वर्जनीय वर और स्त्रियों की रक्षा।

    भावार्थ

    (ये) जो (शालाः) आवारागर्द, इधर उधर घूमने वाले या हिंसक (गर्दभ-नादिनः) गधों के समान खें खें करके हंसने और कोलाहल मचाने वाले (सायं) सायंकाल, रात्रि के प्रारम्भ में (परिनृत्यन्ति) इधर उधर नाचते हैं, अश्लील चेष्टायें करते हैं और (ये) जो (कुसूलाः) कुत्सित रूप में दूसरों के साथ लगने, विना मतलब दूसरों के सिर हो जाने वाले, (कुक्षिलाः) बड़ी बड़ी कोखों वाले, मोटे ताजे, (ककुभाः) कुत्सित, निन्द्य वस्त्र पहने, बदपोशाक, (करुमाः) कुत्सित शब्दों के प्रयोग करने वाले, गाली गलौच बकने वाले, (स्त्रिमाः) लफंगे, लुक छिपकर भागने वाले हैं, हे (भोषधे) दुष्टों को तापदायक राजन् ! दण्डकारिन् ! उन (विषूचीमान्) नाना प्रकार की पीड़ाएं देने वाले दुष्ट पुरुषों को (त्वम्) तू (गन्धेन) अपने तीव्र पीड़ाकर दण्ड द्वारा, तीव्र गन्ध वाली औषध जिस प्रकार अपने गन्ध से कीड़ों को नाश करती है उसी प्रकार (विनाशय) नाना प्रकार से नष्ट कर।

    टिप्पणी

    ‘शालाः’ शल गतौ इत्यस्मात् ण्यन्तादच। शृणोतेर्वा घञ् छान्दसोलः। ‘कुसूलाः’ कुलश्लेष इत्यतः उणादिरूलच्। ‘ककुभाः’ कुभि आच्छादने, कुत्सिताच्छादनशीलाः। ‘करुमाः’ रौतेर्भन् औणादिः। कुत्सितशब्दकारिणः। ‘स्त्रिमाः’ सरतेर्वा मन्। सरणशीलाः। ‘गन्धेन’ गन्ध अर्दने चुरादिः। अर्दनम् पीड़ाकरणम् दण्डनमिति यावत्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवता। उत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ३, ४-९,१३, १८, २६ अनुष्टुभः। २ पुरस्ताद् बृहती। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ११, १२, १४, १६ पथ्यापंक्तयः। १५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी। १७ त्र्यवसाना सप्तपदा जगती॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Foetus Protection

    Meaning

    Those that fly and dance around homes, humming and buzzing, those that stick, have bacterial sheaths, are crooked, annoying, creeping, O Oshadhi, destroy all these poisonous ones with fumes and smell.

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    Translation

    Those flesh-eaters, that dance around the houses, making noises like donkeys, and those needles-shaped, (kusula) big-belled (kuksila), paunechy, kakubhah-karumah, Srimah (srimah) them. O herb, may you scatter and destroy with your smell. (Kusula-grainaries, kuksila -paunchy; kukubhah = exalted - karumah, Srimah).

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    Translation

    Let this medicinal plant destroy with its odor to every side these germs which make sound like an ass, which affect skin, which have beg abdomen, which possess curbed bodies, which at once affect the mind and which produce virus and wandering everywhere dance in the evening. [N.B.: These are named—Gardabhanadin. Kusul, Kukshila, Kakubha. Karuma and Shrima.]

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    Translation

    The wanderers, who at evening, like the bray of asses, dance about, those who are unnecessary intruders, corpulent, ill-clad, slanderers, and vagabonds, O King, the punisher of sinners, destroy these depraved people with thy chastising might, as medicine with its pungent smell destroys the germs!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(ये) मशकादयः क्रमयः (शालाः) गृहाणि (परिनृत्यन्ति) परितो नृत्यन्ति (सायम्) दिनान्ते (गर्दभनादिनः) गर्दभसमानघोषयुक्ताः (कुसूलाः) खर्जिपिञ्जादिभ्य ऊरोलचौ। उ० ४।९०। कुस श्लेषे-ऊल। श्लेषणशीलाः। यद्वा, कुशूलाकृतयः, अन्नकोष्ठकाकाराः (ये) (च) (कुक्षिलाः) ष्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। कुष निष्कर्षे−क्सि। प्राणिस्थादातो लजन्यतरस्याम्। पा० ५।२।९६। बाहुलकात् लच् मत्वर्थे। बृहत्कुक्षयः। महोदराः (ककुभाः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। क+कु+भा दीप्तौ-क। के देहे कु कुत्सितं भान्ति ये ते (करुमाः) कच दीप्तौ-ड। अविसिविशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। रुङ् वधे-मन्, कित्। कं मनो रवन्ते ये। मनःपीडकाः (स्रिमाः) अविसिवि०। उ० १।१४४। स्रिवु गतिशोषणयोः-मन्, कित्। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। वलोपः। गतिशीलाः। शोषकाः (तान्) क्रमीन् (ओषधे) (त्वम्) (गन्धेन) हव्यद्रव्यगन्धेन (विषूचीनान्) अ० ३।७।१। विषु+अञ्चतेः-क्विन्, ख प्रत्ययः। सर्वतोगतीन् (विनाशय) ॥

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