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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मातृनामा देवता - ब्रह्मणस्पति छन्दः - सप्तपदा शक्वरी सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
    66

    येषां॑ प॒श्चात्प्रप॑दानि पु॒रः पार्ष्णीः॑ पु॒रो मुखा॑। ख॑ल॒जाः श॑कधूम॒जा उरु॑ण्डा॒ ये च॑ मट्म॒टाः कु॒म्भमु॑ष्का अया॒शवः॑। तान॒स्या ब्र॑ह्मणस्पते प्रतीबो॒धेन॑ नाशय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येषा॑म् । प॒श्चात् । प्रऽप॑दानि । पु॒र: । पार्ष्णी॑: । पु॒र: । मुखा॑ । ख॒ल॒ऽजा: । श॒क॒धू॒म॒ऽजा: । उरु॑ण्डा: । ये । च॒ । म॒ट्म॒टा: । कु॒म्भऽमु॑ष्का: । अ॒या॒शव॑: । तान् । अ॒स्या: । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । प्र॒ति॒ऽबो॒धेन॑ । ना॒श॒य॒ ॥६.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येषां पश्चात्प्रपदानि पुरः पार्ष्णीः पुरो मुखा। खलजाः शकधूमजा उरुण्डा ये च मट्मटाः कुम्भमुष्का अयाशवः। तानस्या ब्रह्मणस्पते प्रतीबोधेन नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येषाम् । पश्चात् । प्रऽपदानि । पुर: । पार्ष्णी: । पुर: । मुखा । खलऽजा: । शकधूमऽजा: । उरुण्डा: । ये । च । मट्मटा: । कुम्भऽमुष्का: । अयाशव: । तान् । अस्या: । ब्रह्मण: । पते । प्रतिऽबोधेन । नाशय ॥६.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गर्भ की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (येषाम्) जिन [कीड़ों] के (पश्चात्) पीछे को (प्रपदानि) पाँव के अगले भाग, (पुरः) आगे को (पार्ष्णीः) एड़ियाँ और (पुरः) आगे (मुखा) मुख हैं। (च) और (ये) जो [कीड़े] (खलजाः) खलियान में उत्पन्न होनेवाले, (शकधूमजाः) गोवर वा लीद के धुएँ से उत्पन्न होनेवाले, (उरुण्डाः) बहुत इकट्ठे किये गये, (मट्मटाः) अत्यन्त पीड़ा देनेवाले, (कुम्भमुष्काः) घड़े समान अण्डकोशवाले और (अयाशवः) रेंगकर खानेवाले हैं। (ब्रह्मणः पते) हे वेदरक्षक ! [वैद्य] (प्रतिबोधेन) अपने प्रत्यक्ष बोध से (तान्) उन [कीड़ों] को (अस्याः) इस [स्त्री के पास] से (नाशय) नाश कर दे ॥१५॥

    भावार्थ

    वैद्य लोग कुरूप, क्लेशदायक कीड़ों को जो कूड़े-कर्कट के कारण उत्पन्न होते हैं, घर से नष्ट कर दें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(येषाम्) क्रमीणाम् (पश्चात्) पश्चाद्भागे (प्रपदानि) पादाग्रभागाः (पुरः) पुरस्तात् (पार्ष्णीः) अ० २।३३।५। पार्ष्णयः। गुल्फस्याधोभागाः (पुरः) (मुखा) मुखानि (खलजाः) खल चलने-अच्। धान्यमर्दनस्थाने जाताः (शकधूमजाः) गवाश्वादिपुरीषोत्पन्नाः (उरुण्डाः) उरु बहुनाम-निघ० ३।१। खच्च डिद्वा वाच्यः। वा० पा० ३।२।३८। गमेर्निर्दिष्टोऽपि बाहुलकात्, डप राशीकरणे-खच्, डित्। बहुराशीकृताः (ये) क्रमयः (च) (मट्मटाः) मट अवसादने−सौत्रधातुः-विच्+मट-अच्। मटश्च ते मटाश्च ते। अत्यन्तपीडकाः (कुम्भमुष्काः) घटसमानाण्डकोशयुक्ताः (अयाशवः) एरच्। पा० ३।३।५६। इण् गतौ-अच्। कृवापा०। उ० १।१। अश भोजने-उण्। अयेन गमनेन। सर्पणेन आशवो भक्षकाः (तान्) क्रमीन् (अस्याः) स्त्रियाः सकाशात् (ब्रह्मणस्पते) बृहतो वेदस्य रक्षक पुरुष (प्रतिबोधेन) स्वप्रत्यक्षज्ञानेन (नाशय) ॥

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    विषय

    खलजा: शकधूमजाः

    पदार्थ

    १. (येषाम्) = जिन कृमियों के (प्रपदानि) = पादानप्रदेश (पश्चात्) = पीछे की ओर है, (पार्ष्णी: पुर:) = ऐडियाँ आगे हैं, (मुखाः पुरः) = प्रपदों के प्रतिकूल मुख आगे ही हैं, (खलजाः) = धान्य शोधन प्रदेशों में होनेवाले, (शकधूमजा:) = गौ-अश्व आदि के पुरीष-पिण्डों के धूम से उत्पन्न होनेवाले (उरुण्डा:) = उद्गत रुण्ड-[सिरोभाग]-वाले (च) = और (ये मट्मटा:) = [मट् अवसादने] जो बहुत पीड़ा देनेवाले हैं, (कुम्भमुष्का:) = कुम्भोपम मुष्क से युक्त हैं, (अयाशव:) = [अयो वायुः] वायु की भौति शीघ्रगामी हैं, (तान्) = उन सब रोगकृमियों को, हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो। (अस्याः प्रतिबोधेन) = इस बज [श्वेत सर्षप] ओषधि के प्रतिनियत ज्ञान से (नाशय) = विनष्ट कीजिए।

    भावार्थ

    विकृत रूपवाले तथा अपवित्र स्थानों में उत्पन्न हो जानेवाले विविध कृमियों को हम 'बज' नामक ओषधि के सम्यक् प्रयोग से दूर करें।

     

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    भाषार्थ

    (येषाम्) जिन के (प्रपदानि) पादाग्र प्रदेश (पश्चात्) पीछे की ओर, और (पार्ष्णीः) एड़ियां (पुरः) आगे की ओर हैं, (पुरः मुखाः) और मुख पुरस्तात् अर्थात् आगे की ओर हैं। (खलजाः) जो खलों के परिवारों में पैदा हुए हैं, (शकधूमजाः) पशुओं के शकृत् अर्थात् गोबर के धूम्र से धूमिल गृहों में पैदा हुए हैं। (उरुण्डाः) और उरु अण्डों वाले हैं, (ये च) और जो (मट्मटा) मटक-मटक कर चलते या शृङ्गार से विभूषित [मडि भूषायाम्] हुए [चलते हैं] (कुम्भमुष्काः) जो कुम्भ१ सदृश अण्डकोशों वाले हैं (अयाशवः) आशु गतिवाले हैं (ब्रह्मणस्पते) हे वेदज्ञ ! [न्यायाधीश] (अस्याः) इस स्त्री सम्बन्धी (तान्) उन्हें (प्रतीबोधन) उनके अपराधों का बोध करा कर (नाशय) नष्ट कर।

    टिप्पणी

    [इस मन्त्र में भी लुटेरों आदि का वर्णन हैं जो कि "सामाजिक मानुष-कीट" हैं। "प्रपद पीछे की ओर, और एड़ियां आगे की ओर द्वारा" इन की उल्टी चालों का कथन हुआ है। तथा “पुरोमुखाः" द्वारा यह दर्शाया है कि ये उल्टी चालें चलते हुए निज स्वार्थ साधन के लिये, दृष्टि को आगे की ओर करके चलते हैं। ख़लजाः ; खलः२ = A wicked mischierous (आप्टे) "सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः" । "शकधूमजाः” द्वारा गरीबी सूचित की है। कुम्भमुष्काः द्वारा शारीरिक बल सूचित किया है। "अयाशवः"= अय (गतौ) + आशु। हिन्दी में "अय्याश" स्वभाव वाले। “ब्रह्मणस्पते" द्वारा उग्रदण्ड को, ब्रह्मज्ञ अर्थात् वेदज्ञ [न्यायाधीश] द्वारा अनुमोदित दर्शाया है]। [१. इस द्वारा पूर्ण यौवनावस्था सूचित की है। जैसे पूर्णब्रह्मचारी को "बृहच्छेपः" कहा है (अथर्व० ११।७।११)। २. यथा "विद्या विवादाय धनं मदाय। शक्तिः परेषां परिपीडनाय" खलस्य।]

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    विषय

    कन्या के लिये अयोग्य और वर्जनीय वर और स्त्रियों की रक्षा।

    भावार्थ

    (येषाम्) जिन के (प्रपदानि) पंजे (पश्चात्) पीछे की ओर (पार्ष्णीः) एडियां (पुरः) आगे को और (मुखा पुरः) मुँह आगे हों ऐसे (खलजाः) गुण्डों के छोकरे, (शक-धूमजाः) शक्तिमान्, तामस, बड़बड़ाने वाले (कुम्भमुष्काः) और घड़े के समान स्थूल अण्डकोशों वाले, (अयाशवः) भोग करने में सर्वथा असमर्थ, निर्वीर्य, आन्त्रवृद्धि के रोग से पीड़ीत (तान्) उनको हे (ब्रह्मणस्पते) वेद के ज्ञानी पुरुष ! तू (अस्याः) इस स्त्री के (प्रतिबोधेन) ज्ञान बल से (नाशय) नष्ट कर। अर्थात् पूर्वोक्त विकृत आकृति रूपवाले, दुष्टाचारी, हीन, रोगी, नपुंसक आदि लोगों के हाथ में स्त्रियें न पड़ जावें, इसलिये स्त्रियों को उत्तम शिक्षा प्रदान करें, जिससे वे उनके फंदों में न फसें। मूर्ख, भोली भाली स्त्रियां उपरोक्त कुरंग और बदशकल लोगों को साधु करके पूजती हैं और फंस जाती हैं उनसे सावधान कर दिया जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवता। उत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ३, ४-९,१३, १८, २६ अनुष्टुभः। २ पुरस्ताद् बृहती। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ११, १२, १४, १६ पथ्यापंक्तयः। १५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी। १७ त्र्यवसाना सप्तपदा जगती॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Foetus Protection

    Meaning

    Those whose forefeet are back and heels are front, whose mouth is first in front, which are born on the thrashing floor, which are born from the smell of dung, which live in clusters, which are very painful, whose generative glands are large and which move very fast, these, O physician of high knowledge, destroy as soon as you discover.

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    Subject

    Brahamanaspatih

    Translation

    Those, who have their toes backwards, their heels in front, and faces in front; born on the thrashing-floor, born of dung-smoke, headless, aggravating the pains, largetesticled, and swift-moving - all of them of this woman, O lord of knowledge, may you destroy by proper diagnosis.

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    Translation

    O Brahmanaspati ! (the Physician having mastery over the Vedas) drive away from this woman with vigilance or prophylactic measure those. germs which have their toes behind their heels and faces in front, those which are known as Khaljah (born in grain- husking ground), Shaka-dhumaja which are. born of the smokes of animal dung, Urunda those which tre produced in plenty), Matmatah which inflict great pain), Kumbhmuskah (those which have jug-shaped testicles) and Ayashavah (the germs which bite creepingly).

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    Translation

    Those who have retroverted toes, and heels and faces in the front, sons of rascals; powerful, ignorant prattlers, copartners in mischief, highly vexatious people, those who possess pitcher-like big scrotum, and are impotent, these O Vedic scholar, drive thou, far from this girl with vigilance.

    Footnote

    Learned persons should protect innocent girls from falling into the clutches of men of bad character.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(येषाम्) क्रमीणाम् (पश्चात्) पश्चाद्भागे (प्रपदानि) पादाग्रभागाः (पुरः) पुरस्तात् (पार्ष्णीः) अ० २।३३।५। पार्ष्णयः। गुल्फस्याधोभागाः (पुरः) (मुखा) मुखानि (खलजाः) खल चलने-अच्। धान्यमर्दनस्थाने जाताः (शकधूमजाः) गवाश्वादिपुरीषोत्पन्नाः (उरुण्डाः) उरु बहुनाम-निघ० ३।१। खच्च डिद्वा वाच्यः। वा० पा० ३।२।३८। गमेर्निर्दिष्टोऽपि बाहुलकात्, डप राशीकरणे-खच्, डित्। बहुराशीकृताः (ये) क्रमयः (च) (मट्मटाः) मट अवसादने−सौत्रधातुः-विच्+मट-अच्। मटश्च ते मटाश्च ते। अत्यन्तपीडकाः (कुम्भमुष्काः) घटसमानाण्डकोशयुक्ताः (अयाशवः) एरच्। पा० ३।३।५६। इण् गतौ-अच्। कृवापा०। उ० १।१। अश भोजने-उण्। अयेन गमनेन। सर्पणेन आशवो भक्षकाः (तान्) क्रमीन् (अस्याः) स्त्रियाः सकाशात् (ब्रह्मणस्पते) बृहतो वेदस्य रक्षक पुरुष (प्रतिबोधेन) स्वप्रत्यक्षज्ञानेन (नाशय) ॥

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