अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ ।स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥८.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य ।सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥८.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(स्वर्गम्) स्वर्ग की ओर (पततः) उड़ते हुए, (हरेः) अपने साथ सौरपरिवार को हरते हुए, (अस्य) इस (हंसस्य) हंस [सूर्य] के (पक्षौ) मानो दो पंख (सहस्राह्णम्) हजारों दिनों की व्याप्ति में (वियतौ) खुले रहते हैं, फैले रहते हैं। (सः) वह हंस (सर्वान्) सब (देवान्) देवों को (उरसि) छाती में (उपदद्यं) धारण करके (विश्वा भुवनानि संपश्यन्) सब भुवनों को देखता हुआ (याति) जाता है तथा देखो (अथर्व० १३।२।३८; ३।१४)।
टिप्पणी -
[मन्त्र १७ में "हंस" नाम से परमेश्वर का वर्णन हुआ है, जिस की व्याख्या मन्त्र (१८) में हुई है। स्कम्भ के अध्यात्म-प्रकरण में, सूर्य के वर्णन द्वारा सूर्य को स्कम्भ-परमेश्वर के, रथरूप में जानना चाहिये। यजुर्वेद (४०।१७) के अनुसार आदित्य में ब्रह्म पुरुष की स्थिति कही है। यथा "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म"। अतः सूर्यरथ जिधर गति कर रहा है, उसमें स्थित हुए ब्रह्म-पुरुष की गति उधर हो रही हैं। या यह जानो कि सूर्यरथ में अधिष्ठित हुआ ब्रह्म-पुरुष, इस रथ का उड़ान स्वर्ग की ओर कर रहा है। मन्त्र में "पततः" द्वारा और "पक्षौ” द्वारा पक्षी रूप में सूर्यरथ का वर्णन हुआ है, जो कि आकाश में उड़ रहा है। मन्त्र के इस अभिप्राय में "संपश्यन्” पद कविता में नहीं, अपितु "सम्यक् देखने, या निरीक्षण करने, अर्थ में है। सूर्याधिष्ठित ब्रह्मपुरुष वास्तविक द्रष्टा है]।