अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 13
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अ॒न्तरदृ॑श्यमानो बहु॒धा वि जा॑यते। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क॑त॒मः स के॒तुः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑ति: । च॒र॒ति॒ । गर्भे॑ । अ॒न्त: । अदृ॑श्यमान: । ब॒हु॒ऽधा । वि । जा॒य॒ते॒ । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क॒त॒म: । स: । के॒तु: ॥८.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरदृश्यमानो बहुधा वि जायते। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपति: । चरति । गर्भे । अन्त: । अदृश्यमान: । बहुऽधा । वि । जायते । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । कतम: । स: । केतु: ॥८.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(प्रजापतिः) प्रजाओं का पति (गर्भे अन्तः) ब्रह्माण्ड के गर्भ के अन्दर (चरति) विचर रहा है, (अदृश्यमानः) न दीखता हुआ वह (बहुधा) बहुत प्रकार से (वि जायते) विविध रूपों में प्रकट होता है। (अर्धेन) निज एक समृद्ध-अंश से (विश्वम्) समग्र (भुवनम्) ब्रह्माण्ड को (जजान) उस ने पैदा किया है, (यद्) जो (अस्य) इस का (अर्धम्) अवशिष्ट समृद्ध अंश है (सः) वह (कतमः१) अत्यन्त सुखस्वरूप है, (केतुः) ज्ञानस्वरूप है।
टिप्पणी -
[प्रजापतिः, देखो १०।७।४०, ४१। वि जायते = प्रजापतिरूप, पितृरूप, मातृरूप, बन्धुरूप आदि रूपों में वह प्रकट हो रहा है। अर्धेन, देखो (मन्त्र ७)। परमेश्वर के अङ्ग, कल्पनामात्र हैं, यथा "एकपाद्, त्रिपाद्, चतुष्पाद्” आदि। कतमः = "कम सुखनाम" (निघं० ३।६) + तमप्। केतुः = कित् संज्ञाने यथा “चिकेत”। तथा “केतुः प्रज्ञानाम" (निघं० ३।९)। अथवा कतमः = कौन सा वह है? वह प्रज्ञामय है। प्रज्ञानस्वरूप है।] [१. अथवा "प्रकृति, जीव, ब्रह्म" में से वह कौन सा है ? इस का उत्तर है "सः केतुः”, अर्थात् वह है "प्रज्ञास्वरूप, प्रज्ञानस्वरूप। प्रकृति और जीव प्रज्ञास्वरूप, प्रज्ञानस्वरूप नहीं है। केवल प्रजापति प्रज्ञास्वरूप, प्रज्ञानस्वरूप है।]