अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 31
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
अवि॒र्वै नाम॑ दे॒वत॒र्तेना॑स्ते॒ परी॑वृता। तस्या॑ रू॒पेणे॒मे वृ॒क्षा हरि॑ता॒ हरि॑तस्रजः ॥
स्वर सहित पद पाठअवि॑: । वै । नाम॑ । दे॒वता॑ । ऋ॒तेन॑ । आ॒स्ते॒ । परि॑ऽवृता । तस्या॑: । रू॒पेण॑ । इ॒मे । वृ॒क्षा: । हरि॑ता: । हरि॑तऽस्रज: ॥८.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः ॥
स्वर रहित पद पाठअवि: । वै । नाम । देवता । ऋतेन । आस्ते । परिऽवृता । तस्या: । रूपेण । इमे । वृक्षा: । हरिता: । हरितऽस्रज: ॥८.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(अविः) रक्षा करने वाली (नाम देवता) प्रसिद्ध देवता (ऋतेन) सत्य ब्रह्म द्वारा (परीवृता) सब ओर से आवृत अर्थात् घिरी हुई (आस्ते) स्थित है। (तस्याः) उसके (रूपेण) रूप अर्थात् प्रकाश द्वारा (इमे) ये (वृक्षाः) वृक्ष (हरिताः) हरे हैं (हरितस्रजः) और हरी मालाओं वाले हैं।
टिप्पणी -
[अविः१=अव रक्षणे; (भ्वादिः) रक्षा करने वाला सूर्य। अविः = The sun (आप्टे)। ऋतेन = "ऋतम् सत्यनाम" (निघं० ३।१०)। अभिप्राय है "सत्यब्रह्म" (यजु० ४०।१७)। सूर्य के प्रकाश द्वारा बृक्ष हरे हैं और लतारूपी हरी मालाओं वाले हैं। "ऋतम् उदकनाम" (निघं० १।१२)। वृक्ष हरे होते हैं सूर्य के प्रकाश द्वारा, तथा जलसेचन (२९) द्वारा। इस लिये मन्त्र में "ऋत" शब्द दो अर्थों वाला प्रयुक्त हुआ है। आस्ते = आस उपवेशने (अदादिः) सूर्य "आस्ते" अर्थात् एक स्थान में उपविष्ट है, स्थित है, स्थिर है, वह चलता नहीं]। [१. अवि का यौगिक अर्थ है रक्षक (अण रक्षणे, अदादिः)। सूर्य वस्तुतः पार्थिव वनस्पति-जगत् का तथा प्राणिजगत का रक्षक है। परन्तु रूढ्यर्थ में अवि का अर्थ है भेड़। भेड़ जाति की मादा को तो अवि कहते हैं, और नर को मैष। मन्त्र में अवि द्वारा मेषराशि भी विशेषतया सूचित की है। बसन्त ऋतु में सूर्य मेषराशि पर होता है, जबकि वनस्पतियों में नवप्राण का संचार होता है और वृक्ष तथा लताएं हरी-भरी होने लगती है, जिन का कि मन्त्र में "हरिताः हरितस्रजः" द्वारा वर्णन हुआ है। बसन्त से पूर्व शिशिर ऋतु होती है जब कि वनस्पतियों के पत्ते जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तभी शिशिर ऋतु को "पतझड़" भी कहते हैं, पत्ते झड़ने की ऋतु। अवि अर्थात् मेषराशि में स्थित सूर्य को लक्षणया अवि कहा है।]