अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 35
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
येभि॒र्वात॑ इषि॒तः प्र॒वाति॒ ये दद॑न्ते॒ पञ्च॒ दिशः॑ स॒ध्रीचीः॑। य आहु॑तिम॒त्यम॑न्यन्त दे॒वा अ॒पां ने॒तारः॑ कत॒मे त आ॑सन् ॥
स्वर सहित पद पाठयेभि॑: । वात॑: । इ॒षि॒त: । प्र॒ऽवार्ति॑ । ये । दद॑न्ते । पञ्च॑ । दिश॑: । स॒ध्रीची॑: । ये । आऽहु॑तिम् । अ॒ति॒ऽअम॑न्यन्त । दे॒वा: । अ॒पाम् । ने॒तार॑: । क॒त॒मे । ते । आ॒स॒न् ॥८.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
येभिर्वात इषितः प्रवाति ये ददन्ते पञ्च दिशः सध्रीचीः। य आहुतिमत्यमन्यन्त देवा अपां नेतारः कतमे त आसन् ॥
स्वर रहित पद पाठयेभि: । वात: । इषित: । प्रऽवार्ति । ये । ददन्ते । पञ्च । दिश: । सध्रीची: । ये । आऽहुतिम् । अतिऽअमन्यन्त । देवा: । अपाम् । नेतार: । कतमे । ते । आसन् ॥८.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 35
भाषार्थ -
(येभिः) जिन द्वारा (इषितः) प्रेरित हुई (वातः) वायु (प्रवाति) बहती है, (ये) जो (सध्रीचीः) साथ-साथ मिली हुई (पञ्च) विस्तृत (दिशः) दिशाएं (ददन्ते) प्रदान करते हैं। (ये देवाः) जो देव (आहुतिम्) आहुति को (अति अमन्यन्त) अत्युपयोगी मानते हैं (अपां नेतारः ते) जलों के नेता वे देव (कतमे) कौन से (आसन्) हैं।
टिप्पणी -
[पञ्च= पचि विस्तारवचने (चुरादिः), यथा “पञ्चास्यः", अर्थात् विस्तृत मुख वाला शेर तथा पचि व्यक्तीकरणे (भ्वादिः)। अथवा पञ्च = पांच। ददन्ते= जो देव दिशाओं का निर्माण करते, या इन का ज्ञान देते हैं। देवों द्वारा दिशाओं का ज्ञान होता है। जहां से सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा है, जहां वह अस्त होता है वह पश्चिम दिशा है। जिधर सप्तर्षि मण्डल है वह उत्तर दिशा है, उसके सामने की दिशा दक्षिण दिशा है। इसी प्रकार चन्द्र आदि द्वारा भी दिशाओं का परिज्ञान होता है। आहुतिम् = पार्थिव-यज्ञाग्नि, वायु तथा सूर्य- ये तीन देव यज्ञिय-आहुतियों को फलदायी करते हैं, वायु को शुद्ध करते, रोगनाश करते, वर्षा करते, तथा स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। मानो ये ३ देव यज्ञियाहूतियों को अतिमान प्रदान करते हैं]।