अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाकृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
स॒प्त यु॑ञ्जन्ति॒ रथ॒मेक॑चक्र॒मेको॒ अश्वो॑ वहति स॒प्तना॑मा। त्रि॒नाभि॑ च॒क्रम॒जर॑मन॒र्वं यत्रे॒मा विश्वा॒ भुव॒नाधि॑ त॒स्थुः। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । रथ॑म् । एक॑ऽचक्रम् । एक॑: । अश्व॑: । व॒ह॒ति॒ । स॒प्तऽना॑मा । त्रि॒ऽनाभि॑ । च॒क्रम् । अ॒जर॑म् । अ॒न॒र्वम् । यत्र॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑ना । अधि॑ । त॒स्थु: । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा। त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । युञ्जन्ति । रथम् । एकऽचक्रम् । एक: । अश्व: । वहति । सप्तऽनामा । त्रिऽनाभि । चक्रम् । अजरम् । अनर्वम् । यत्र । इमा । विश्वा । भुवना । अधि । तस्थु: । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(एकचक्रम् रथम्) एक चक्र वाले रथ को (सप्त युञ्जन्ति) सात अश्व (युञ्जन्ति) जोतते हैं, वस्तुतः (सप्तनामा) सात अश्वों में परिणत होने वाला (एकः अश्व) एक अश्व (वहति) रथ को चलाता है। (चक्रम्) चक्र (त्रिनाभि) तीन नाभियों वाला, (अजरम्) जरा रहित (अनर्वम) नाश रहित है, (यत्र) जिस चक्र में (इमा विश्वा भुवना) ये सब भुवन (अधि तस्थुः) अधिष्ठित है। (तस्य देवस्य........पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १) । अनर्वम् = अथवा बिना प्राणी घोड़े का चक्र रथ।
टिप्पणी -
[एकचक्र रथ = सूर्य। सूर्य चक्राकार है, गोल है, और अकेला आकाश में विचरता है। सूर्य के विचरते काल में चान्द, नक्षत्र, तारागण नहीं होते। सूर्यरथ का वहन एक जातीय शुभ्रवर्ण वाली रश्मियां करती हैं जोकि सप्तरंगी सात रश्मियों में फट कर परिणत हो जाती हैं। तीन ऋतुएँ अर्थात् ग्रीष्म, वर्षा और शरद् मानो इस चक्र की तीन नाभियां१ है। रथ के चक्र अपनी अपनी रथ-नाभि के चारों ओर घूमते हैं। सूर्यरूपी चक्र, नाभिरूप तीन ऋतुओं के चारों ओर मानो घूम रहा है। सूर्य के आधार पर सब सौर-भुवन अधिष्ठित हैं। "विश्वा भुवना" पद द्वारा सूर्य के अधिष्ठाता परमेश्वर का वर्णन भी अभिप्रेत हैं, जिस के आश्रय जगत् के समग्र भुवन अधिष्ठित हैं। इस सूर्य-रथ पर सूर्य का स्वामी परमेश्वर अधिष्ठित है। "एक चक्रं रथम्” एक चक्र वाले रथ की सम्भावना को सूचित किया है, अर्थात् mono cycle vehicle को]। [१. नाभियां=केन्द्र। सौर-चक्र की ३ नाभियां अर्थात् केन्द्र कहे हैं। तीन केन्द्रों पर की परिधि या चक्र वृत्ताकार न हो कर बृहद् अण्डाकार होता है। वेदानुसार सूर्य नहीं चलता, अपितु पृथिवी चलती है। पृथिवी के चलने से सूर्य चलता प्रतीत होता है। अतः पृथिवी के मार्ग की अण्डाकृति दर्शाई है। अथवा त्रिणाभि चक्रम् = ग्रीष्म, वर्षा, शरद् ऋतुरूपी ३ नाभियां।]