अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 3/ मन्त्र 19
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदा भुरिगाकृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अ॑ष्ट॒धा यु॒क्तो वह॑ति॒ वह्नि॑रु॒ग्रः पि॒ता दे॒वानां॑ जनि॒ता म॑ती॒नाम्। ऋ॒तस्य॒ तन्तुं॒ मन॑सा मि॒मानः॒ सर्वा॒ दिशः॑ पवते मात॒रिश्वा॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्ट॒ऽअधा । यु॒क्त: । व॒ह॒ति॒ । वह्नि॑: । उ॒ग्र: । पि॒ता । दे॒वाना॑म् । ज॒नि॒ता । म॒ती॒नाम् । ऋ॒तस्य॑ । तन्तु॑म् । मन॑सा । मि॒मान॑: । सर्वा॑: । दिश॑: । प॒व॒ते॒ । मा॒त॒रिश्वा॑ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टधा युक्तो वहति वह्निरुग्रः पिता देवानां जनिता मतीनाम्। ऋतस्य तन्तुं मनसा मिमानः सर्वा दिशः पवते मातरिश्वा। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टऽअधा । युक्त: । वहति । वह्नि: । उग्र: । पिता । देवानाम् । जनिता । मतीनाम् । ऋतस्य । तन्तुम् । मनसा । मिमान: । सर्वा: । दिश: । पवते । मातरिश्वा । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(अष्टधा) आठ योगाङ्गो द्वारा आठ प्रकार से (युक्तः) योग युक्त किया गया (उग्रः वह्निः) उग्र वाहक परमेश्वर, (वहति) सिद्ध योगी के शरीर रथ का वहन करने लगता है। वह (देवानाम्) द्योतमान सूर्यादि का (पिता) पिता है, और (मतीनाम्) वैदिक ज्ञानों का (जनिता) उत्पादक है। (ऋतस्य तन्तुम्) सत्यज्ञान तथा संसार के सत्य नियमों के कारणीभूत परमेश्वर को, (मनसा) मानो ज्ञानपूर्वक (मिमानः) मापता हुआ (मातरिश्वा) अन्तरिक्षस्थ वायु, (सर्वाः दिशाः) सब दिशाओं में (पवते) गति करता या बहता है।
टिप्पणी -
[अष्टधा = आठ प्रकार से। योगाङ्ग आठ हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (योग २।२९)। इन आठ योगाङ्गों में से प्रत्येक अङ्ग परमेश्वर को योग१ युक्त करने में सहायक है। इस लिये परमेश्वर को "अष्टधायुक्तः" कहा है। परमेश्वर उग्र है। आसानी से योगयुक्त नहीं किया जा सकता, जैसे कि उग्र अश्व या उग्र बैल आसानी से जोता नहीं जा सकता। परमेश्वर की उग्रता पर, आठ योगाङ्गों द्वारा काबू पाया जा सकता है। वशीभूत परमेश्वर सिद्ध-पुरुष के शरीर-रथ का वहन करने लगता है। उस अवस्था में सिद्ध-पुरुष के जीवन में परमेश्वर प्रेरक हो जाता है। परमेश्वर सूर्यादि जड़-जगत् का तथा वैदिक ज्ञानों का पिता तथा जनयिता है। तन्तुम् = तन्तु कारण है पट के, वस्त्र के। परमेश्वर तन्तुवत् संसार पट का कारण है, सांसारिक नियमों तथा वैदिक ज्ञानों का कारण है। मिमानः= वायु मानो व्यापक परमेश्वर के परिमाण को नापने के लिये सब२ दिशाओं में गति कर रही है। जैसे कि कहा है कि "क्व प्रेप्सन् पवते मातरिश्वा" (अथर्व० १०।७।४), अर्थात् कहां जाना चाहती हुई वायु गति कर रही है। उत्तर में कहा है कि "स्कम्भरूप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए" वायु गति कर रही है।] [१. परमेश्वर को योगसाधनों द्वारा शरीर-रथ में जोतना। २. मानो परमेश्वर की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई नापने के लिये चारों तथा ऊर्ध्व-दिशा में वायु गति करता है।]