अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 12
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
नास्य॑ जा॒या श॑तवा॒ही क॑ल्या॒णी तल्प॒मा श॑ये। यस्मि॑न्रा॒ष्ट्रे नि॑रु॒ध्यते॑ ब्रह्मजा॒याचि॑त्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । जा॒या । श॒त॒ऽवा॒ही । क॒ल्या॒णी । तल्प॑म् । आ । श॒ये॒ । यस्मि॑न् । रा॒ष्ट्रे । नि॒ऽरु॒ध्यते॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । अचि॑त्त्या ॥१७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये। यस्मिन्राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । जाया । शतऽवाही । कल्याणी । तल्पम् । आ । शये । यस्मिन् । राष्ट्रे । निऽरुध्यते । ब्रह्मऽजाया । अचित्त्या ॥१७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(शतवाही) सैकड़ों सैनिकों [की वाहिनी ] का वहन करनेवाली, (कल्याणी१) और कल्याणकारिणी (अस्य) इस राजा की (जाया) पत्नी, इसकी (तल्पम्) शय्या पर (न आशये) नहीं आकर शयन करती है, (यस्मिन् राष्ट्रे) जिस राष्ट्र में (ब्रह्मजाया) ब्रह्मजाया ( अचित्त्या) अज्ञान-पूर्वक, (निरुध्यते) [प्रचार करने से] रोकी जाती है। ब्रह्मजाया = ब्रह्मणि रता जाया, मध्यपदलोपी समास।
टिप्पणी -
[ब्रह्मजाया को प्रचार से रोकने के विरोध में राजा की जाया भी राजा से रुष्ट हो जाती है।] [१. राष्ट्र का कल्याण चाहनेवाली राजा की जाया चाहती है कि ब्रह्मरता ब्राह्मणी राष्ट्र में ब्रह्मासम्बन्धी प्रचार करे, ताकि राष्ट्र में आध्यात्मिक प्रचार द्वारा प्रजाजनों के जीवनों में आध्यात्मिकता हो सके, परन्तु गजा इसे नहीं चाहता, अत: उसकी पत्नी रुष्ट है। अथवा जाया कल्याणी है पति के प्रति, परन्तु पति है राजा। राजा का कल्याण भी तो प्रजा के कल्याण पर ही निर्भर है, अतः पत्नी आध्यात्मिकता का प्रचार चाहती है।]