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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त

    दे॒वा वा ए॒तस्या॑मवदन्त॒ पूर्वे॑ सप्तऋ॒षय॒स्तप॑सा॒ ये नि॑षे॒दुः। भी॒मा जा॒या ब्रा॑ह्म॒णस्योप॑नीता दु॒र्धां द॑धाति पर॒मे व्यो॑मन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । वै । ए॒तस्या॑म् ।अ॒व॒द॒न्त॒ । पूर्वे॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । तप॑सा । ये । नि॒ऽसे॒दु: । भी॒मा । जा॒या । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । अप॑ऽनीता । दु॒:ऽधाम् । द॒धा॒ति॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा वा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसा ये निषेदुः। भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । वै । एतस्याम् ।अवदन्त । पूर्वे । सप्तऽऋषय: । तपसा । ये । निऽसेदु: । भीमा । जाया । ब्राह्मणस्य । अपऽनीता । दु:ऽधाम् । दधाति । परमे । विऽओमन् ॥१७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    (पूर्वे) पूर्वकाल अर्थात् प्रथमकाल के (देवाः) देवों ने अर्थात् (सप्तऋषयः) सात ऋषियों ने (ये) जोकि (तपसा) तपश्चर्या के साथ (निषेदुः) समाधि में स्थित हुए थे, (वै) निश्चय से (अवदन्त) कहा कि ( अपनीता ) अपकृष्ट गुणोंवाले व्यक्ति द्वारा ली जाई गई (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की (जाया) होनेवाली जाया (भीमा) भयावह है, वह (परमे व्योमन्) परमरक्षक राष्ट्र में (दुर्धाम्) धारण-पोषण करने में दुर्व्यवस्था को ( दधाति ) स्थापित करती है, राष्ट्र में विप्लव पैदा कर देती है ।

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