अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 14
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
नास्य॑ क्ष॒त्ता नि॒ष्कग्री॑वः सू॒नाना॑मेत्यग्र॒तः। यस्मि॑न्रा॒ष्ट्रे नि॑रु॒ध्यते॑ ब्रह्मजा॒याचि॑त्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । क्ष॒त्ता । नि॒ष्कऽग्री॑व: । सू॒नाना॑म् । ए॒ति॒ । अ॒ग्र॒त: । यस्मि॑न् । रा॒ष्ट्रे । नि॒ऽरु॒ध्यते॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । अचि॑त्त्या ॥१७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्य क्षत्ता निष्कग्रीवः सूनानामेत्यग्रतः। यस्मिन्राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । क्षत्ता । निष्कऽग्रीव: । सूनानाम् । एति । अग्रत: । यस्मिन् । राष्ट्रे । निऽरुध्यते । ब्रह्मऽजाया । अचित्त्या ॥१७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(निष्कग्रीवः) सुवर्ण-मुद्रा-निर्मित हार को ग्रीवा में धारण करने वाला, (अस्य क्षत्ता) इस राजा के रथ का वाहन करनेवाला रथी, (सूनानाम्) सूनारूप युद्धभूमियों में (अग्रतः) आगे की ओर (न) नहीं जाता। (यस्मिन् राष्ट्रे) जिस राष्ट्र में (ब्रह्मजाया) ब्रह्मजाया ( अचिन्त्या) अज्ञान-पूर्वक, (निरुध्यते) [प्रचार करने से] रोकी जाती है।
टिप्पणी -
[वैदिक दृष्टि में युद्धभूमियाँ सूनारूप हैं, बूचड़खाने हैं, जिनमें कि मानुष वध किये जाते हैं, मानुष जीवन उच्च उद्देश्य के लिए है।]