अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
हस्ते॑नै॒व ग्रा॒ह्य॑ आ॒धिर॑स्या ब्रह्मजा॒येति॒ चेदवो॑चत्। न दू॒ताय॑ प्र॒हेया॑ तस्थ ए॒षा तथा॑ रा॒ष्ट्रं गु॑पि॒तं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठहस्ते॑न । ए॒व । ग्रा॒ह्य᳡: । आ॒ऽधि: । अ॒स्या॒: । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । इति॑ । च॒ । इत् । अवो॑चत् । न । दू॒ताय॑ । प्र॒ऽहेया॑ । त॒स्थे॒ । ए॒षा । तथा॑ । रा॒ष्ट्रम् । गु॒पि॒तम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेति चेदवोचत्। न दूताय प्रहेया तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥
स्वर रहित पद पाठहस्तेन । एव । ग्राह्य: । आऽधि: । अस्या: । ब्रह्मऽजाया । इति । च । इत् । अवोचत् । न । दूताय । प्रऽहेया । तस्थे । एषा । तथा । राष्ट्रम् । गुपितम् । क्षत्रियस्य ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(हस्तेन एव) पाणिग्रहण विधि द्वारा ही ( अस्याः) इस व्रह्मजाया की (आधिः) मन-की-चिन्ता ( ग्राह्या) निगृहीत करनी चाहिए, समाप्त करनी चाहिए,-"यह ब्राह्मण की जाया है"- (इति) यह ( इत् च ) ही (अवोचत्) मयोभू१ ने कहा, निर्णय दिया। (एषा ) यह ब्रह्मजाया ( दूताय प्रहेया) दौत्यकर्म के लिए प्रेरणीया होने की योग्यता के लिए ( न तस्थे) स्थित नहीं है। (तथा) इस प्रकार ( क्षत्रियस्य ) क्षत्रिय राजा का ( राष्ट्रम्) राष्ट्र (गुपितम्) सुरक्षित होता है।
टिप्पणी -
["ब्रह्मजाया", ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म और वेद के जाननेवाले के लिए है, यह ही "मयोभू" ने निर्णय में कहा कि इसी प्रकार गुण-कर्मानुसार विवाह व्यवस्था होनी चाहिए। इससे वर्णसंकर दोष मिट सकता है और राष्ट्रिय जीवन सुरक्षित रह सकता है। ब्रह्मजाया भी ब्राह्मणी ही अभिप्रेत है, ब्रह्म और वेद को जाननेवाली। दूत-प्रेषण द्वारा विवाह में अन्यथा प्रक्रिया न होनी चाहिए,— यह खयाल रखना क्षत्रिय राजा का कर्तव्य है।] [१. सूक्त १७वें का ऋषि है, "मयोभू", और देवता है "ब्रह्मजाया"। अनुक्रमणी-कार ने मन्त्र (१) में "ब्रह्मभूः" पद देखकर सूक्त का ऋषि "ब्रह्मभू" कह दिया है, जो कि काल्पनिक है। ऋषि यदि मनुष्य हैं, जिनकी उत्पत्ति कालपरिच्छिन्न है, तो वे वेदों के समकालिक सम्भव नहीं हो सकते वस्तुतः सूक्त १७वें का ऋषि अज्ञात है। नित्य वेदों में कालपरिच्छिन्न मनुष्यों के नाम सम्भव नहीं हो सकते।]