अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
सोमो॒ राजा॑ प्रथ॒मो ब्र॑ह्मजा॒यां पुनः॒ प्राय॑च्छ॒दहृ॑णीयमानः। अ॑न्वर्ति॒ता वरु॑णो मि॒त्र आ॑सीद॒ग्निर्होता॑ हस्त॒गृह्या नि॑नाय ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑: । राजा॑ । प्र॒थ॒म: । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । पुन॑: । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । अहृ॑णीयमान: । अ॒नु॒ऽअ॒र्ति॒ता । वरु॑ण: । मि॒त्र: । आ॒सी॒त् । अ॒ग्नि: । होता॑ । ह॒स्त॒ऽगुह्य॑ । आ । नि॒ना॒य॒ ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छदहृणीयमानः। अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय ॥
स्वर रहित पद पाठसोम: । राजा । प्रथम: । ब्रह्मऽजायाम् । पुन: । प्र । अयच्छत् । अहृणीयमान: । अनुऽअर्तिता । वरुण: । मित्र: । आसीत् । अग्नि: । होता । हस्तऽगुह्य । आ । निनाय ॥१७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(राजा) राजमान (सोमः) सौम्य स्वभाव ( प्रथम: ) प्रथम था, जिसने कि (अहृणीयमानः) विना लज्जा के (ब्रह्मजायाम्) ब्रह्म और वेद के वेत्ता को जाया को (पुनः) फिर (प्रायच्छत्) वापस कर दिया। इसके (अन्वतिता) पश्चात् आनेवाला (आमीत्) था (वरुणः) कमों में श्रेष्ठपन, (मित्रः) और मित्र भावना; परन्तु ( अग्निः) यज्ञाग्नि (होता) निजहस्त प्रदान कर, (हस्तगृह्य) पाणिग्रहणपूर्वक, (आनिनाय) अपने गृह में इसे ले आया।
टिप्पणी -
[शैशवावस्था में कन्या सौम्यस्वभाववाली होती है, अतः उसका पति या अधिपति सोम कहा है [पति= पा रक्षणे ]। तदनन्तर उसमें सदाचार और अनाचार की विवेक-भावना जागरित होती है। जिसेकि वरुण द्वारा सूचित किया है, वरुण =श्रेष्ठ। कालान्तर में मित्र अर्थात् स्नेही-जीवन-संगी की कामना प्रकट होती है। अन्त में वैवाहिक अग्नि, मानो होता बनकर, पाणिग्रहण की विधिपूर्वक उसे विवाहित कर पतिगृह में ले-आती है। मन्त्र में इस प्रक्रम की अवस्थाओं को पुरुषरूप में वर्णित किया है। इन अवस्थाओं के अधिक वर्णन के लिए देखें (अथर्व० १४।२।१-४)१। ब्रह्मजाया= ब्रह्मणः जाया। मन्त्र में 'अवदन्' द्वारा संवाद का कथन हुआ है। उस संवाद में जो निर्णय हुआ उसका कथन मन्त्र २ से सुक्त की समाप्ति तक में है। होता= हु दाने, हस्तप्रदान करना, विवाहार्थ अवलंब प्रदान करना।] [१. अग्नि में पूर्व के पतियों के सम्बन्ध में "हस्तगृह्य" अर्थात् पाणिग्रहण विधि का वर्णन नहीं हुआ। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वकाल के पति "सोम" आदि काल्पनिक हैं, वास्तनिक नहीं, वे केवल कन्या की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से रक्षक मात्र है, विवाहित पति नहीं।]