अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मनु॑ ति॒स्र आगु॒स्त्रयो॑ घ॒र्मा अनु॒ रेत॒ आगुः॑। प्र॒जामेका॒ जिन्व॒त्यूर्ज॒मेका॑ रा॒ष्ट्रमेका॑ रक्षति देवयू॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । ति॒स्र: । आ । अ॒गु॒: । त्रय॑: । ध॒र्मा: । अनु॑ । रेत॑: । आ । अ॒गु॒: । प्र॒ऽजाम् । एका॑ । जिन्व॑ति । ऊर्ज॑म् । एका॑ । रा॒ष्ट्रम् । एका॑ । र॒क्ष॒ति॒ । दे॒व॒ऽयू॒नाम् ॥९.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आगुस्त्रयो घर्मा अनु रेत आगुः। प्रजामेका जिन्वत्यूर्जमेका राष्ट्रमेका रक्षति देवयूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य । पन्थाम् । अनु । तिस्र: । आ । अगु: । त्रय: । धर्मा: । अनु । रेत: । आ । अगु: । प्रऽजाम् । एका । जिन्वति । ऊर्जम् । एका । राष्ट्रम् । एका । रक्षति । देवऽयूनाम् ॥९.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर के दर्शाए (पन्थाम्, अनु) पथ के अनुसार (तिस्रः) तीन शक्तियां (आ अगुः) आई हुई हैं, (त्रयः) तीन (घर्मा) प्रदीप्त तत्त्व (रेतः अनु) परमेश्वरीय कामना१ के अनुसार [पथ पर] (अगुः) आए हुए हैं। (एका) शक्तियों में से एक (प्रजाम्) प्रजा को (जिन्वति) प्रीणित करती है, (एका) दूसरी एक (ऊर्जम्) बल और प्राण के दाता अन्न को प्रीणित करती है, (एका) तीसरी एक (देवयूनाम्) दिव्यगुणों तथा दिव्यकोटि के जनों को चाहने वाले प्रजाजनों के (राष्ट्रम्) राष्ट्र की (रक्षति) रक्षा करती है।
टिप्पणी -
[जब समग्र संसार परमेश्वर के दर्शाए मार्ग पर चलता है, और मनुष्य निज अवाञ्छनीय कृत्यों द्वारा संसार को भ्रष्ट तथा गन्दा नहीं करते, तब तीन तात्त्विक शक्तियां और तीन प्रदीप्त तत्त्व संसार का वस्तुतः उपकार और समुन्नति करने लगते हैं। तीन तात्त्विक शक्तियां हैं पृथिवी, वर्षा और तीसरी "सरस्वती" अर्थात् ज्ञानविज्ञान वाली वेदविद्या। तथा तीन प्रदीप्त तत्त्व हैं, पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्षीय मेघस्था विद्युत् और सूर्य। पृथिवी तो निवासस्थान और अन्न के उत्पादन द्वारा समग्र प्रजा को तृप्त करती है, इतना उत्पादन कर देती है कि कोई प्राणी अन्नाभाव का अनुभव नहीं करता "ऊर्क२ अन्ननाम" (निघं० २।७) । तथा वर्षा, पृथिवी के उत्पादन में सहायक होती है। वर्षा द्वारा पैदा होता तथा अन्न में रस का संचार होता है। अन्न द्विविध है, स्थूल अन्न और रसरूप अन्न। तीसरी तात्त्विक शक्ति है सरस्वती। जब राष्ट्रस्थ मनुष्य राष्ट्र को दिव्य बनाना चाहते हैं तब वह वेदोपदिष्ट मार्ग द्वारा ही राष्ट्र को रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा युद्धों, उपद्रवों, महामारियों और कष्टों द्वारा राष्ट्र का विनाश हो जाता है। राष्ट्ररक्षा होते तीन प्रदीप्त तत्त्व भी निजकार्यों को यथावत् करने लगते हैं। पार्थिव अग्नि प्रत्येक घर की पाकशाला में अन्न का पाक करने लगती है, किसी के घर की पार्थिव अग्नि अन्नाभाव के कारण अप्रज्वलित नहीं रहती, मेघस्था विद्युत् नियमानुसार वर्षा करती, और सूर्य नियमपूर्वक ताप और प्रकाश देने लगता है। घर्माः= घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः)। सरस्वती = सरो विज्ञानं विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती वाक् (उणादि० ४।१९०। महर्षि दयानन्द)] [१. रेतस्= कामना। परमेश्वर की कामना अर्थात् इच्छा उसका मानसिक रेतस् है (ऋ० १०।१२९।४); तथा मन्त्र १० की व्याख्या। २. ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)।]