अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 12
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
छन्दः॑पक्षे उ॒षसा॒ पेपि॑शाने समा॒नं योनि॒मनु॒ सं च॑रेते। सूर्य॑पत्नी॒ सं च॑रतः प्रजान॒ती के॑तु॒मती॑ अ॒जरे॒ भूरि॑रेतसा ॥
स्वर सहित पद पाठछन्द॑:पक्षे॒ इति॒ छन्द॑:ऽपक्षे । उ॒षसा॑ । पेपि॑शाने॒ इति॑ ।स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अनु॑ । सम् । च॒रे॒ते॒ इति॑ । सूर्य॑पत्नी॒ इति॒ सूर्य॑ऽपत्नी । सम् । च॒र॒त॒: । प्र॒जा॒न॒ती इति॑ प्र॒ऽजा॒न॒ती । के॒तु॒मती॒ इति॑ के॒तु॒ऽमती॑ । अ॒जरे॒ इति॑ । भूरि॑ऽरेतसा ॥९.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
छन्दःपक्षे उषसा पेपिशाने समानं योनिमनु सं चरेते। सूर्यपत्नी सं चरतः प्रजानती केतुमती अजरे भूरिरेतसा ॥
स्वर रहित पद पाठछन्द:पक्षे इति छन्द:ऽपक्षे । उषसा । पेपिशाने इति ।समानम् । योनिम् । अनु । सम् । चरेते इति । सूर्यपत्नी इति सूर्यऽपत्नी । सम् । चरत: । प्रजानती इति प्रऽजानती । केतुमती इति केतुऽमती । अजरे इति । भूरिऽरेतसा ॥९.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(पेपिशाने) प्रत्यवयव में रूपवती, (छन्दः पक्षे) छन्दरूपी पंखों वाली (उषसा) दो उषाएं (समानम्) एक (योनिम्) गृह में (अनु) निरन्तर (संचरेते) संचार करती हैं। (सूर्यपत्नी) ये दोनों सूर्य की पत्नियां, (प्रजानती) निजमार्ग को जानती हुईं, (केतुमती) मानो झण्डा ली हुईं, (अजरे) जरा रहित हुई, (भूरिरेतसा) प्रभूतशक्तिसम्पन्ना हुई, (संचरतः) इकट्ठी विचरती हैं।
टिप्पणी -
[पेपिशाने = पिश अवयवे (तुदादिः), तथा 'पेशः रूपनाम" (निघं० ३।७)। १छन्दः पक्षे = स्वच्छन्दतारूपी पंखों वाली अर्थात् स्वतन्त्रता पूर्वक द्युलोक में उड़ने वाली पक्षीरूप दो उषाएं, प्रातःकालीन उषा तथा सायं कालीन उषा। अथवा छन्दः अर्थात् वेदमन्त्र, द्विविध वेदमन्त्रों सम्बन्धी दो उषाएं। उषा काल ध्यान का काल है। इन कालों में परमेश्वर का ध्यान करना होता है और द्विविध मन्त्र अर्थात् स्तुति और प्रार्थना सम्बन्धी मन्त्र मानो दो पंख हैं पक्षी के दो ही पंख होते हैं। उपासना के मन्त्र नहीं कहे, उपासना अर्थात् ध्यान में परमेश्वर के समीप बैठना "उप१ + आसना" के अधिकारी सभी मनुष्य नहीं होते। समीप बैठने में वे ही सशक्त हो सकते हैं जो कि निज चित्तवृत्तियों का निरोध कर सकते हैं। सर्व साधारण इस निःशक्त होते हैं। अतः वे केवल स्तुति और प्रार्थना ही कर सकते हैं। समान योनि है द्युलोक। इसी में दोनों उषाएं विचरती हैं। "योनिः गृहनाम" (निघं ३।४)। दोनों उषाएं सूर्य की पत्नी हैं। सूर्य के आगे-आगे चलती हैं और सायंकाल की उषाएं अर्थात् लालिमाएं सूर्य के अस्त होने के समनन्तर द्युलोक में कुछ काल तक चमकती हैं। इन का केतु अर्थात् झण्डा सूर्य ही प्रतीत होता है। ये अजरा हैं। इन पर बुढ़ापा नहीं आता, ये सदा शक्तिमती होती हैं। जब से सृष्टिरचना हुई है तब से निरन्तर द्युलोक में चमकती रही हैं, और जब तक सृष्टि रहेगी, ये निरन्तर चमकती रहेंगीं। अतः ये अजरा हैं]। [१. छन्दस्= wish, desire, Pleasure, Free will (आप्टे)। २. वस्तुतः "उप + आसना" चित्त की वह अवस्था है, जबकि उपासक परमेश्वर का साक्षात दर्शन करता हुआ, परमेश्वरीय आनन्दरस का आस्वादन कर रहा होता है। यह तल्लीनावस्था है। इस अवस्था में स्तुति और प्रार्थना दोनों का अभाव रहता है।]