अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 26
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
ए॒को गौरेक॑ एकऋ॒षिरेकं॒ धामै॑क॒धाशिषः॑। य॒क्षं पृ॑थि॒व्यामे॑क॒वृदे॑क॒र्तुर्नाति॑ रिच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑: । गौ: । एक॑: । ए॒क॒ऽऋ॒षि: । एक॑म् । धाम॑ । ए॒क॒ऽधा । आ॒ऽशिष॑: । य॒क्षम् । पृ॒थि॒व्याम् । ए॒क॒ऽवृत् । ए॒क॒ऽऋ॒तु: । न । अति॑ । रि॒च्य॒ते॒ ॥९.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
एको गौरेक एकऋषिरेकं धामैकधाशिषः। यक्षं पृथिव्यामेकवृदेकर्तुर्नाति रिच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठएक: । गौ: । एक: । एकऽऋषि: । एकम् । धाम । एकऽधा । आऽशिष: । यक्षम् । पृथिव्याम् । एकऽवृत् । एकऽऋतु: । न । अति । रिच्यते ॥९.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(एकः) एक (गौः) गौ है, (एकः) एक है (एक ऋषिः) एक ऋषि है (एकम्) एक (धामः) स्थान अर्थात् आश्रय है, तथा तेजों में तेज है, (एकधा) एक ही प्रकार की (आशिषः) आशीर्वादोक्तियां हैं। (पृथिव्याम्) पृथिवी में (यक्षम्) पूजनीय (एकवृत्) एक ही वर्तमान है, (एकर्तुः) एक ही ऋतु है, (न अति रिच्यते) उस से बढ़कर और कोई नहीं।
टिप्पणी -
[मन्त्र (२४) में “गृष्टि" द्वारा गौ का वर्णन हुआ है, जो कि दुग्ध द्वारा सब को तृप्त करती है। मन्त्र (२५-२६) में वास्तविक गौ आदि के सम्बन्ध में प्रश्न किये हैं, तथा उत्तर दिये हैं। वास्तविक गौ, जो कि सबके साथ “गृष्टि” को भी तृप्त करती है, वह है पृथिवी। "गौः पृथिवीनाम" (निघं० १।१)। पृथिवी से गृष्टि भी पैदा होती, और पार्थिव घास आदि द्वारा परिपुष्ट होकर दुग्ध प्रदान करती है। पृथिवी के अन्नरूपी हव्य तथा घृत द्वारा देवयज्ञ होता, परमेश्वर के प्रति आहुतियां दी जातीं; और पृथिवी से मनुष्यादि उत्पन्न होकर पृथिवी द्वारा प्राप्त प्रश्नों से तृप्त होते हैं। अतः वास्तविक गौ है पृथिवी। तथा एक ही ऋषि है परमेश्वर। ऋषि हैं मन्त्रद्रष्टा या मन्त्रार्थद्रष्टा। परमेश्वर तो सभी वेदों तथा मन्त्रार्थों का पारदृश्वा है। अतः वह ही एक ऋषि है, मुख्य ऋषि है। परमेश्वर ही सब के लिये एक धामरूप है, एकाश्रयरूप है। वह ही सब धामों में धाम है, सब तेजस्वियों में तेजोरूप है। वेदों द्वारा दिये उस के आशीर्वाद सब के लिये एकसमान हैं। स्त्री, शूद्र आर्य, अनार्य सब के लिये उस के दिये आशीर्वादों में भेदभाव नहीं। उसने आशीर्वादरूप में दी 'कल्याणी वेदवाक्' सभी के लिये है। यक्षम् है ब्रह्म१। वह पूजनीय है "यक्ष पूजायाम्" (चुरादिः)। पृथिवी में यक्ष्म अर्थात् ब्रह्म पूजनीय है। "एकवृत्"२ पूजा की दृष्टि से पृथिवी में वह एक ही वर्तमान है। “एकः वर्तते" इति एकवृत्। ऋतुओं में ऋतु भी एक है, वह है वसन्त ऋतु। यथा “ऋतूनां कुसुमाकरः" (गीता १०/३५)। कुसुमाकरः= कुसुमों अर्थात् फूलों की खान। वसन्त से बढ़ कर कोई ऋतु नहीं। एकर्तुः = एकः मुख्यः ऋतुः]।३ [१. "तस्मिन् यद् यक्ष्ममात्मन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः" (अथर्व० १०।२।३२)। २. "स एष एकवृत्, एक एव" (अथर्व० १३।४।१२)। तथा "ध एतं देव मेकवृतं वेद" (अथर्व० १३।४।२।(१५)। ३. सूक्त ९ सम्पूर्ण। इस के पश्चात् सूक्त ९ (मन्त्र २१) में कथित "अष्टमी रात्रि" के एकाष्टका स्वरूप का स्पष्टीकरण किया गया है।