अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
को वि॒राजो॑ मिथुन॒त्वं प्र वे॑द॒ क ऋ॒तून्क उ॒ कल्प॑मस्याः। क्रमा॒न्को अ॑स्याः कति॒धा विदु॑ग्धा॒न्को अ॑स्या॒ धाम॑ कति॒धा व्युष्टीः ॥
स्वर सहित पद पाठक: । वि॒ऽराज॑: । मि॒थु॒न॒ऽत्वम् । प्र । वे॒द॒ । क: । ऋ॒तून् । ऊं॒ इति॑ । कल्प॑म् । अ॒स्या॒: । क्रमा॑न् । क: । अ॒स्या॒: । क॒ति॒ऽधा । विऽदु॑ग्धान् । क: । अ॒स्या॒: । धाम॑ । क॒ति॒ऽधा । विऽउ॑ष्टी: ॥९.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
को विराजो मिथुनत्वं प्र वेद क ऋतून्क उ कल्पमस्याः। क्रमान्को अस्याः कतिधा विदुग्धान्को अस्या धाम कतिधा व्युष्टीः ॥
स्वर रहित पद पाठक: । विऽराज: । मिथुनऽत्वम् । प्र । वेद । क: । ऋतून् । ऊं इति । कल्पम् । अस्या: । क्रमान् । क: । अस्या: । कतिऽधा । विऽदुग्धान् । क: । अस्या: । धाम । कतिऽधा । विऽउष्टी: ॥९.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(कः) कौन (विराजः) सृष्टि में विशेषतया प्रदीप्त हुई प्रकृति के (मिथुनत्वम्) मैथुन-कर्म को (प्रवेद) प्रकृष्ट अर्थात् ठीक प्रकार से जानता है, (कः) कौन (ऋतून्) ऋतुधर्मों के कालों को, (क उ) और कौन (अस्याः) इस प्रकृति के (कल्पम्) कल्पकाल को, (कः) कौन (अस्याः) इस प्रकृति के (क्रमान्) क्रमों को, तथा (कतिधा) कितनी वार यह (विदुग्धान्) दुग्धरहित हुई है, इसे, (क) कौन (अस्याः) इस के (धाम) तेज को, तथा (कतिधा) कितने प्रकार या कितनी (व्युष्टीः) यह विविध उषाओं में चमकी है- [इन सब को सम्पक् रूप में जानता है]।
टिप्पणी -
[विराजः = वि + राजृ दीप्तौ। मिथुनत्वम् = प्रकृति है पत्नी, और परमेश्वर है उस का पति। परमेश्वर की कामना कि मैं सृष्टि को रचूं - यह है रेतस् [वीर्य] जिस का कि आधान वह प्रकृति के गर्भ में करता है, और सृष्टि पैदा होती है। यथा "कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्” (ऋ० १०।१२९।४), अर्थात् प्रारम्भ में काम अर्थात् कामना प्रकट हुई, जो कि प्रथम मानसिक रेतस् थी। इस अभिप्राय में “ऋतून्” ऋतुधर्म हैं जिन के होते स्त्री गर्भधारण करती है। कल्पम् = जितने काल तक सृष्टि बनी रहती है उतना काल, जिसे कि ब्राह्मदिन कहते हैं, जो कि १००० युगों का काल होता है । क्रमान् = जिन क्रमों से सृष्टि की रचना होती है, यथा "परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से आपः, आप से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से रेतस्, रेतस् से पुरुष" (तै० उपनिषद्)। वैदिक साहित्य में अन्य प्रकार से भी क्रमों को दर्शाया है। कतिधा= सृष्टि कितनी हुई है,– इसे भी कौन जानता है। विदुग्धान् = दूध के सम्बन्ध से विराट् को गोसदृश निर्दिष्ट किया है। विदुग्धान् के दो अर्थ हैं, (१) दुग्ध से विशिष्ट होना, इसके द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति दर्शाई है, गौ दुग्धसम्पन्न तभी होती है जब कि उस से वत्स पैदा होता है। (२) दूसरा अर्थ है "दुग्धरहित" होना, यह अवस्था प्रलयकाल को सूचित करती है। धाम = धाम के अर्थ हैं नाम, स्थान, जन्म और तेज। यतः यह उषाकालों में चमकी है, इसलिये धाम का अर्थ तेज किया है। उषाओं द्वारा भी सृष्टिकालों को सूचित किया है। सूक्त में विविध पहेलियों का कथन हुआ है जिन के सुलझाने में मतभेद सम्भव है]।