अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 19
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
स॒प्त छन्दां॑सि चतुरुत्त॒राण्य॒न्यो अ॒न्यस्मि॒न्नध्यार्पि॑तानि। क॒थं स्तोमाः॒ प्रति॑ तिष्ठन्ति॒ तेषु॒ तानि॒ स्तोमे॑षु क॒थमार्पि॑तानि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । छन्दां॑सि । च॒तु॒:ऽउ॒त्त॒राणि॑ । अ॒न्य: । अ॒न्यस्मि॑न् । अधि॑ । आर्पि॑तानि । क॒थम् । स्तोमा॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । तेषु॑ । तानि॑ । स्तोमे॑षु । क॒थम् । आर्पि॑तानि ॥९.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त छन्दांसि चतुरुत्तराण्यन्यो अन्यस्मिन्नध्यार्पितानि। कथं स्तोमाः प्रति तिष्ठन्ति तेषु तानि स्तोमेषु कथमार्पितानि ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । छन्दांसि । चतु:ऽउत्तराणि । अन्य: । अन्यस्मिन् । अधि । आर्पितानि । कथम् । स्तोमा: । प्रति । तिष्ठन्ति । तेषु । तानि । स्तोमेषु । कथम् । आर्पितानि ॥९.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(सप्त छन्दांसि) सात छन्द हैं (चतुः उत्तराणि) जिन में उत्तरोत्तर के छन्दों में चार-चार अक्षर बढ़ते हैं, (अन्यः) उत्तरोत्तर छन्द (अन्यस्मिन् अधि) पूर्व-पूर्व के छन्द में (आर्पितानि) अर्पित होते हैं, आश्रित होते हैं। (कथम्) किस प्रकार (स्तोमाः१) मन्त्रों के गेय स्वरूप (तेषु) उन छन्दों [छन्दोयुक्त मन्त्रों] में (प्रति तिष्ठन्ति) स्थित होते हैं, (तानि) और वे छन्द [छन्दोयुक्त मन्त्र] (स्तोमेषु) मन्त्रों के गेयस्वरूपों में (कथम्) किस प्रकार (आर्पितानि) अर्पित होते हैं, आश्रित होते हैं।
टिप्पणी -
[७ छन्द हैं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती। गायत्री छन्द में २४ अक्षर होते हैं, और उत्तरोत्तर छन्दों में चार-चार अक्षरों की वृद्धि द्वारा अन्तिम छन्द “जगती" में ४८ अक्षर हो जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर छन्द अपने से पूर्व-पूर्व के छन्द में आश्रित होता है क्योंकि पूर्व-पूर्व छन्द में चार अक्षरों की वृद्धि से ही उत्तरोत्तर छन्द बनता है। मन्त्रों में स्तोम अर्थात् मन्त्रों के गेयस्वरूपों की स्थिति होती है। मन्त्रों के "गेयस्वरूप” मन्त्रों की आवृत्तियों द्वारा निष्पन्न होते हैं, जिन पर कि सामगान किये जाते हैं। जैसे कि त्रिवृत्-स्तोम में गायत्री छन्द के तीन मन्त्र होते हैं, और प्रथम तथा तृतीय मन्त्र को तीन-तीन वार आवृत्त करना होता है, दोहराना होता है। कहा भी है "त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्" (ऋचम्)। इस प्रकार मन्त्रों या ऋचाओं में "स्तोम" समवेत होते हैं, और स्तोमों में मन्त्र या ऋचाएं समवेत होती हैं२]। [१. यजु० १४।२३ में नाना स्तोमों का कथन हुआ है। "यथा" त्रिवृत्, पञ्चदशः, सप्तदशः, एकविंशः, अष्टादशः, नवदशः, सविंशः, द्वाविंशः, त्रयोविंशः, चतुर्विंश:, पंचविंशः, त्रिणवः, एकत्रिंशः, त्रयस्त्रिंश: चतुस्त्रिंशः, षट्त्रिंशः, अष्टाचत्वारिंशः, चतुष्टोमः। परन्तु इन का आधिदैविक रूपों में भी शतपथ में कथन हुआ है। परन्तु मन्त्र (१९) में आधिदैविक व्याख्या अभिमत नहीं। २. स्तोमों के गान में, मन्त्र में, मध्य में, "स्तोम" भी होते हैं, जोकि "आलाप" रूप होते हैं।]