अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 16
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
षड्जाता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्य॒ षडु॒ सामा॑नि षड॒हं व॑हन्ति। ष॑ड्यो॒गं सीर॒मनु॒ साम॑साम॒ षडा॑हु॒र्द्यावा॑पृथि॒वीः षडु॒र्वीः ॥
स्वर सहित पद पाठषट् । जा॒ता । भू॒ता । प्र॒थ॒म॒ऽजा । ऋ॒तस्य॑ । षट् । ऊं॒ इति॑ । सामा॑नि । ष॒ट्ऽअ॒हम् । व॒ह॒न्ति॒ । ष॒ट्ऽयो॒गम् । सीर॑म् । अनु॑ । साम॑ऽसाम । षट् । आ॒हु॒: । द्यावा॑पृथि॒वी: । षट् । उ॒र्वी: ॥९.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
षड्जाता भूता प्रथमजर्तस्य षडु सामानि षडहं वहन्ति। षड्योगं सीरमनु सामसाम षडाहुर्द्यावापृथिवीः षडुर्वीः ॥
स्वर रहित पद पाठषट् । जाता । भूता । प्रथमऽजा । ऋतस्य । षट् । ऊं इति । सामानि । षट्ऽअहम् । वहन्ति । षट्ऽयोगम् । सीरम् । अनु । सामऽसाम । षट् । आहु: । द्यावापृथिवी: । षट् । उर्वी: ॥९.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(ऋतस्य) नियम सम्बन्धी अर्थात् नियम के अनुसार (प्रथमजा१ = प्रथमजानि) प्रथमोत्पन्न होने वाले (षट्) ६ (भूता = भूतानि) सत्तासम्पन्न तत्त्व (जाता = जातानि) उत्पन्न हुए। (षट् उ) ६ ही (सामानि) साम (षडहम्) ६ दिनों में सम्पाद्य यज्ञ का (वहन्ति) वहन करते हैं, सम्पादन करते हैं। (षड्योगम्) ६ [बैलों] के योगवाले हल द्वारा किये (सीरम्) कृषिकर्म के (अनु) अनुरूप (सामसाम) प्रत्येक योग के साथ एक-एक साम होता है। (षट्) ६ (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी हैं (आहुः) ऐसा कहते हैं और (षट् उर्वीः) ६ विस्तृत दिशाएं हैं।
टिप्पणी -
[यह नियम है कि प्रत्येक प्रलय के अनन्तर पुनः सृष्टि होती है। इस नियम के अनुसार प्रारम्भ में ६ सत्तासम्पन्न तत्व उत्पन्न हुए। (१) साम्यावस्था वाली प्रकृति का विषमावस्था में होना। (२) आकाश। (३) वायु। (४) अग्नि। (५) आपः। (६) पृथिवी। ये ६ तत्व ब्रह्माण्ड के सर्जनारम्भ में पैदा हुए। "६ साम हैं" - बृहत्, रथन्तर, यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, वैरूप, वैराज (अथर्व० १५।४।३, ५, ८, ११) इन ६ सामों के अतिरिक्त श्यैत और नौधस सामों का भी वर्णन अथर्ववेद में हुआ है। "षडहम्" है षड्रात्रयज्ञ (अथर्व० ११।९।१९)। "सीरम्" सीर का अर्थ है हल, जिस द्वारा खेत जोता जाता है। हल के साथ ६ बैलों को जोतना हास्यास्पद है। गीता के अनुसार (१३।१-३) शरीर है क्षेत्र और आत्मा है क्षेत्रज्ञ, शरीरक्षेत्र का स्वामी। आत्मा शरीर क्षेत्र में हल जोतकर और इसे तयार कर, सत्कर्मरूपी बीज बोता है। यह है आध्यात्मिक कृषिकर्म। इस कर्म में सहायक ६ हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां और १ यम। ये ही ६ बैल हैं, जोकि बुद्धिरूपी हल के आगे जुते हुए हैं। इस आध्यात्मिक कृषिकर्म की सफलता के लिये जीवन में भक्ति भरे ६ सामगान भी होने चाहिये, ज्ञानेन्द्रियों और १मन की शुद्धि के लिये। इन ६ की शुद्धि हो जाने से कर्मेन्द्रियां स्वतः शुद्ध हो जाती हैं, क्योंकि ज्ञानानुरूप ही कर्म होते हैं। 'द्यावापृथिवी' — त्रिविधा है द्यौः और त्रिविधा है पृथिवी। द्यौः त्रिविधा है, दृश्यमाना द्यौः, स्वः, नाकः। "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा, येन स्वः स्तभितं येन नाकः" (यजु० ३२।६) में “उग्रा द्यौः, स्वः, नाकः"२ द्वारा द्युलोक का त्रैविध्य प्रदर्शित किया है। "नाकः" में योगसिद्ध साध्य देवों की स्थिति भी वेदानुमत है (यजु० ३१।१६)। पृथिवी भी त्रिविधा है, समुद्र, समतल तथा पर्वत। अथवा पृथिवी का ऊपर का पार्थिव स्तर इस के नीचे जलीय स्तर, जिस की सूचना कूपजलों तथा चश्मों द्वारा ज्ञात होती है, तथा इसके भी नीचे आग्नेयस्तर, जिसकी सूचना ज्वालामुखी पर्वतों तथा गर्मचश्मों द्वारा मिलती है। इस प्रकार द्यौः और पृथिवी मिलकर षट् हैं। षट् उर्वीः = ६ विस्तृत दिशाएं, पूर्व, दक्षिण पश्चिम, उत्तर, ध्रुवा तथा ऊर्ध्वा।] [१. पदपाठ में जाता। भूता। प्रथमजा - ऐसे पाठ हैं, जोकि नपुंसकलिङ्गी प्रतीत होते हैं। अतः भूता=भूतानि। जाता=जातानि। प्रथमजा=प्रथमजातानि। २. "स्वः नाकः" = निरुक्त में इन पदों की व्याख्या निम्न प्रकार हुई है। स्वः आदित्यो भवति, एतेन द्यौव्यख्याता। नाक आदित्यो भवति, अथ द्यौः। कमिति सुखनाम, तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत। "न वा अमु लोकं जामुषे किं च नाकम्" (काठक सं० २१।२; तथा निरक्त २।४।१४)। त्रिष्टुबादित्यो भवति, आविष्टो भासेति। अथ द्यौराविष्टा ज्योतिभिः पुण्यकृद्भिश्च (निरुक्त २।४।१४)। इन उद्धरणों के अनुसार "अमुं लोकं जामुषे" द्वारा द्यौः में गए को "न अकम्" पदों द्वारा सुखाभाव का अभाव दर्शाया है, अर्थात् सुख विशेष की सत्ता दर्शाई है। तथा यह भी दर्शाया है कि द्यौः में पुण्यकर्माओं का निवास है। इस से स्वः और नाक: स्थान विशेष प्रतीत होते हैं जोकि द्यौः के अङ्गरूप हैं। परन्तु महर्षि दयानन्द का विचार "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभित येन नाकः। यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः" (यजु० ३२।६) द्वारा भिन्न प्रकार का प्रतीत होता है। विचार यह कि लोक तो तीन हैं, द्यौः पृथिवी, अन्तरिक्ष। अतः स्वः और नाक पद किसी स्थान विशेष का निर्देश नहीं करते, अपितु ये दो पद "स्वः = सुख को, और नाकः= सब दुखों से रहित मोक्ष को" [सूचित करते हैं] महर्षि दयानन्द का विचार इसलिये भी ठीक प्रतीत होता है कि "स्वः" और "स्वर्ग" में भेद तो होना ही चाहिये। स्वर्ग का अर्थ है "स्वः गम्यते यत्र सः स्वर्गः"। अतः "स्वः" का अर्थ सुख है, यह वस्तुतः यथार्थ है। "स्वर्ग" शब्द स्थानवाची है, न कि 'स्वः' शब्द।]