अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 15
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
पञ्च॒ व्युष्टी॒रनु॒ पञ्च॒ दोहा॒ गां पञ्च॑नाम्नीमृ॒तवोऽनु॒ पञ्च॑। पञ्च॒ दिशः॑ पञ्चद॒शेन॒ क्लृप्तास्ता एक॑मूर्ध्नीर॒भि लो॒कमेक॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ । विऽउ॑ष्टी: । अनु॑ । पञ्च॑ । दोहा॑: । गाम् । पञ्च॑ऽनाम्नीम् । ऋ॒तव॑: । अनु॑ । पञ्च॑ । पञ्च॑ । दिश॑: । प॒ञ्च॒ऽद॒शेन॑ । क्लृ॒प्ता: । ता: । एक॑ऽमूर्ध्नी: । अ॒भि । लो॒कम् । एक॑म् ॥९.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च। पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्तास्ता एकमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्च । विऽउष्टी: । अनु । पञ्च । दोहा: । गाम् । पञ्चऽनाम्नीम् । ऋतव: । अनु । पञ्च । पञ्च । दिश: । पञ्चऽदशेन । क्लृप्ता: । ता: । एकऽमूर्ध्नी: । अभि । लोकम् । एकम् ॥९.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(पञ्चनाम्नीम्) पांच नसनों अर्थात् झुकावों वाली (गाम् अनु) पृथिवी के अनुसार (पञ्च व्युष्टीः) पांच प्रकार की भिन्न-भिन्न उषाएं हैं, और पाँच व्युष्टियों के (अनु) अनुसार (पञ्चदोहाः) पञ्चविध दोह हैं, पृथिवी में उत्पत्तियां हैं, और पञ्चविध नमनों के अनुसार (पञ्च ऋतवः) पांच ऋतुएं हैं। (पञ्च दिशः) पांच दिशाएं (पञ्चदशेन) १५ कलाओं वाले चन्द्रमा द्वारा (क्लृप्ताः) कल्पित हुई हैं, या निर्मित हुई हैं, (एकमूर्ध्नीः) चन्द्रमारूपी एकमूर्धा वाली (ताः) वे पांच दिशाएं (एकम्, लोकम् अभि) एक पृथिवीलोक की ओर है [फैली हुई हैं]।
टिप्पणी -
[गाम् = गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। पञ्चनाम्नीम्= पृथिवी अपने अक्ष पर साढ़े ६६ अंश का कोण बनाती हुई सूर्य की परिक्रमा, घड़ी की सुईयों के उल्टे क्रम में अर्थात् दाएं से बाईं ओर करती है । ६६ का कोण पृथिवी का एक "नमन" है। इस "नमन" के साथ पृथिवी के भिन्न-भिन्न भागों के "नमन" अर्थात् झुकाव भी, भिन्न-भिन्न कालों में सूर्य के संमुख होते रहते हैं। इन द्विविध नमनों के कारण ऋतुओं का निर्माण होता है। वेदानुसार ऋतुएं ६ हैं, और इन में से ४ ऋतुओं अर्थात् वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, और शरद् के अपने-अपने विशिष्ट लक्षण अनुभूत होते हैं, परन्तु हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में सर्दी लगभग एक समान होने के कारण इनका पारस्परिक भेद अनुभूत नहीं होता, अतः इन दो ऋतुओं को एक ऋतु मानकर मन्त्र में "ऋतवः पञ्च" कहा है। इस लिये निरुक्त में कहा है कि "इति पञ्चर्तु तथा पञ्चर्तवः संवत्सरस्येति च ब्राह्मणं हेमन्तशिशिरयोः समासेन" (निरुक्त ४।४।२७)। पञ्चदिशः = दिशाएं ५ हैं। मन्त्र में “पञ्च, पञ्च" द्वारा दिशाओं की संख्या भी पांच कही है, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा उर्ध्वा या ध्रुवा दिशाएं। इन दिशाओं का निर्माता कहा है पञ्चदश अर्थात् चन्द्रमा; यथा “चन्द्रमा वै भान्तः पञ्चदश। स च पञ्चदशाहानि आ पूर्यते, पञ्चदशापक्षीयन्ते, भाति च चन्द्रमा ” (शत० ब्राह्मण ४।१।१०)। चन्द्रमा द्वारा भी दिशाओं का निर्माण होता है। अमावस्या के द्वितीय दिन में चन्द्रमा का उदय पश्चिम में, तथा पौर्णमास की रात्री में पूर्व में होता है। इस प्रकार चन्द्रमा भी दिशाओं का ज्ञापक है। दिन में सूर्य द्वारा दिशाओं का निश्चय होता है, और रात्री में चन्द्रमा द्वारा। पांच ऋतुओं की प्रत्येक ऋतु में, पृथिवी के प्रदेशों में उषाओं की चमकों में भी पंचविध भेद हो जाता है। तथा ऋतुभेद के कारण पृथिवी में पञ्चविध दोह अर्थात् उत्पत्तियां भी होती रहती हैं। इन पांच दिशाओं को "एकमूर्ध्नीः" कहा है, अर्थात् एक सिर वाली। जैसे मूर्धा से ज्ञानवाहिनी नाड़ियां समग्र शरीर में व्याप्त हो जाती हैं, इसी प्रकार मानो चन्द्रमा रूपी मूर्धा से पाँच दिशाएं निकल कर "एकलोक" पृथिवी में व्याप्त हो रही हैं। मन्त्र में सब वर्णन कविता में है। इसलिये वेद को काव्य कहते हैं। यथा "देवस्य पश्य काव्यम्" (अथर्व० १०/८/३२; ९।१५।९)। तथा परमेश्वर को कवि कहा है। यथा "कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः" (यजु० ४०।८)। वेदों में कल्पनाएं केवल कल्पनाएं ही नहीं अपितु इन कल्पनाओं में यथार्थता अनुस्यूत रहती है।]