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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यु॒ञ्जा॒नः प्र॑थ॒मं मन॑स्त॒त्त्वाय॑ सवि॒ता धियः॑। अ॒ग्नेर्ज्योति॑र्नि॒चाय्य॑ पृथि॒व्याऽअध्याभ॑रत्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जा॒नः। प्र॒थ॒मम्। मनः॑। त॒त्त्वाय॑। स॒वि॒ता। धियः॑। अ॒ग्नेः। ज्योतिः॑। नि॒चाय्येति॑ नि॒चाऽय्य॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। आ। अ॒भ॒र॒त् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जानः प्रथमम्मनस्तत्वाय सविता धियः । अग्नेर्ज्यातिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जानः। प्रथमम्। मनः। तत्त्वाय। सविता। धियः। अग्नेः। ज्योतिः। निचाय्येति निचाऽय्य। पृथिव्याः। अधि। आ। अभरत्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    जो (सविता) ऐश्वर्य को चाहने वाला मनुष्य (तत्त्वाय) उन परमेश्वर आदि पदार्थों के ज्ञान होने के लिये (प्रथमम्) पहिले (मनः) विचारस्वरूप अन्तःकरण की वृत्तियों को और (धियः) धारणा रूप अन्तःकरण की वृत्तियों को (युञ्जानः) योगाभ्यास और भूगर्भविद्या में युक्त करता हुआ (अग्नेः) पृथिवी आदि में रहने वाली बिजुली के (ज्योतिः) प्रकाश को (निचाय्य) निश्चय करके (पृथिव्याः) भूमि के (अधि) ऊपर (आभरत्) अच्छे प्रकार धारण करे, वह योगी और भूगर्भ-विद्या का जानने वाला होवे॥१॥

    भावार्थ - जो पुरुष योगाभ्यास और भूगर्भविद्या किया चाहे, वह यम आदि योग के अङ्ग और क्रिया-कौशलों से अपने हृदय को शुद्ध करके तत्त्वों को जानने के लिये बुद्धि को प्राप्त करके और इन को गुण, कर्म तथा स्वभाव से जान के उपयोग लेवे। फिर जो प्रकाशमान सूर्य्यादि पदार्थ हैं, उन का भी प्रकाशक ईश्वर है, उस को जान और अपने आत्मा में निश्चय करके अपने और दूसरों के सब प्रयोजनों को सिद्ध करे॥१॥

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