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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 54
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    रु॒द्राः स॒ꣳसृज्य॑ पृथि॒वीं बृ॒हज्ज्योतिः॒ समी॑धिरे। तेषां॑ भा॒नुरज॑स्र॒ऽइच्छु॒क्रो दे॒वेषु॑ रोचते॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒द्राः। स॒ꣳसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। पृ॒थि॒वीम्। बृ॒हत्। ज्योतिः॑। सम्। ई॒धि॒रे॒। तेषा॑म्। भा॒नुः। अज॑स्रः। इत्। शु॒क्रः। दे॒वेषु॑। रो॒च॒ते॒ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुद्राः सँसृज्य पृथिवीम्बृहज्ज्योतिः समीधिरे । तेषाम्भानुरजस्रऽइच्छुक्रो देवेषु रोचते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रुद्राः। सꣳसृज्येति सम्ऽसृज्य। पृथिवीम्। बृहत्। ज्योतिः। सम्। ईधिर। तेषाम्। भानुः। अजस्रः। इत्। शुक्रः। देवेषु। रोचते॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    हे स्त्रीपुरुषो! जैसे (रुद्राः) प्राणवायु के अवयवरूप समानादि वायु (संसृज्य) सूर्य्य को उत्पन्न करके (पृथिवीम्) भूमि को (बृहत्) बड़े (ज्योतिः) प्रकाश के साथ (समीधिरे) प्रकाशित करते हैं (तेषाम्) उन से उत्पन्न हुआ (शुक्रः) कान्तिमान् (भानुः) सूर्य्य (देवेषु) दिव्य पृथिवी आदि में (अजस्रः) निरन्तर (रोचते) प्रकाश करता है, (इत्) वैसे ही विद्यारूपी न्याय सूर्य्य को उत्पन्न कर के प्रजापुरुषों को प्रकाशित और उन से प्रजाओं में दिव्य सुख का प्रचार करो॥५४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वायु सूर्य्य का, सूर्य्य प्रकाश का, प्रकाश नेत्रों से देखने के व्यवहार का कारण है, वैसे ही स्त्री-पुरुष आपस के सुख के साधन-उपसाधन करने वाले होके सुखों को सिद्ध करें॥५४॥

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