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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 43
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स जा॒तो गर्भो॑ऽअसि॒ रोद॑स्यो॒रग्ने॒ चारु॒र्विभृ॑त॒ऽओष॑धीषु। चि॒त्रः शिशुः॒ परि॒ तमा॑स्य॒क्तून् प्र मा॒तृभ्यो॒ऽअधि॒ कनि॑क्रदद् गाः॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। जा॒तः। गर्भः॑। अ॒सि॒। रोद॑स्योः। अग्ने॑। चारुः॑। विभृ॑त॒ इति॒ विऽभृ॑तः। ओष॑धीषु। चि॒त्रः। शिशुः॑। परि॑। तमा॑सि। अ॒क्तून्। प्र। मा॒तृभ्य॑ इति॑ मा॒तृऽभ्यः॑। अधि॑। कनि॑क्रदत्। गाः॒ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स जातो गर्भाऽअसि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृतऽओषधीषु । चित्रः शिशुः परि तमाँस्यक्तून्प्रमातृभ्योऽअधि कनिक्रदद्गाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। जातः। गर्भः। असि। रोदस्योः। अग्ने। चारुः। विभृत इति विऽभृतः। ओषधीषु। चित्रः। शिशुः। परि। तमासि। अक्तून्। प्र। मातृभ्य इति मातृऽभ्यः। अधि। कनिक्रदत्। गाः॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) विद्वान्! जो आप जैसे (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी में (जातः) प्रसिद्ध (चारुः) सुन्दर (ओषधीषु) सोमलतादि ओषधियों में (विभृतः) विशेष करके धारण वा पोषण किया (चित्रः) आश्चर्य्यरूप (गर्भः) स्वीकार करने योग्य सूर्य्य (मातृभ्यः) मान्य करने हारी माता अर्थात् किरणों से (तमांसि) रात्रियों तथा (अक्तून्) अन्धेरों को (पर्य्यधिकनिक्रदत्) सब ओर से अधिक करके चलता हुआ (गाः) चलाता है, वैसे ही (शिशुः) बालक (गाः) विद्या को प्राप्त होवे॥४३॥

    भावार्थ - जैसे ब्रह्मचर्य्य आदि अच्छे नियमों से उत्पन्न किया पुत्र विद्या पढ़ के माता-पिता को सुख देता है, वैसे ही माता-पिता को चाहिये कि प्रजा को सुख देवें॥४३॥

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