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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 42
    ऋषिः - कण्व ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - उपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    ऊ॒र्ध्वऽऊ॒ षु ण॑ऽऊ॒तये॒ तिष्ठा॑ दे॒वो न स॑वि॒ता। ऊ॒र्ध्वो वाज॑स्य॒ सनि॑ता॒ यद॒ञ्जिभि॑र्वा॒घद्भि॑र्वि॒ह्वया॑महे॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वः। ऊ॒ इत्यूँ॑। सु। नः॒। ऊ॒तये॑। तिष्ठ॑। दे॒वः। न। स॒वि॒ता। ऊ॒र्ध्वः। वाज॑स्य। सनि॑ता। यत्। अ॒ञ्जिभि॒रित्य॒ञ्जिऽभिः॑। वा॒घद्भि॒रिति॑ वा॒घत्ऽभिः॑। वि॒ह्वया॑महे॒ इति॑ वि॒ह्वया॑महे ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वऽऊ षु णऽऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वा वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वः। ऊ इत्यूँ। सु। नः। ऊतये। तिष्ठ। देवः। न। सविता। ऊर्ध्वः। वाजस्य। सनिता। यत्। अञ्जिभिरित्यञ्जिऽभिः। वाघद्भिरिति वाघत्ऽभिः। विह्वयामहे इति विह्वयामहे॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 42
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    पदार्थ -
    हे अध्यापक विद्वान्! आप (ऊर्ध्वः) ऊपर आकाश में रहने वाले (देवः) प्रकाशक (सविता) सूर्य्य के (न) समान (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (सुतिष्ठ) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये (यत्) जो आप (अञ्जिभिः) प्रकट करने हारे किरणों के सदृश (वाघद्भिः) युद्धविद्या में कुशल बुद्धिमानों के साथ (वाजस्य) विज्ञान के (सनिता) सेवनेहारे हूजिये (उ) उसी को हम लोग (विह्वयामहे) विशेष करके बुलाते हैं॥४२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक और उपदेशक विद्वान् को चाहिये कि जैसे सूर्य्य, भूमि और चन्द्रमा आदि लोकों से ऊपर स्थित होके, अपनी किरणों से सब जगत् की रक्षा के लिये प्रकाश करता है, वैसे उत्तम गुणों से विद्या और न्याय का प्रकाश करके सब प्रजाओं को सदा सुशोभित करें॥४२॥

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