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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 67
    ऋषिः - आत्रेय ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑॥६७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्त्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति॒। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑। स्वाहा॑ ॥६७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वो देवस्य नेतुर्मर्ता वुरीत सख्यम् । विश्वो रायऽइषुध्यति द्युम्नँवृणीत पुष्यसे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वः। देवस्य। नेतुः। मर्त्तः। वुरीत। सख्यम्। विश्वः। राये। इषुध्यति। द्युम्नम्। वृणीत। पुष्यसे। स्वाहा॥६७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 67
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    पदार्थ -
    जैसे विद्वान् लोग ग्रहण करते हैं (विश्वः) सब (मर्त्तः) मनुष्य (नेतुः) सब के नायक (देवस्य) सब जगत् के प्रकाशक परमेश्वर के (सख्यम्) मित्रता को (वुरीत) स्वीकार करें (विश्वः) सब मनुष्य (राये) शोभा वा लक्ष्मी के किये (इषुध्यति) बाणादि आयुधों को धारण करें (स्वाहा) सत्यवाणी और (द्युम्नम्) प्रकाशयुक्त यश वा अन्न को (वृणीत) ग्रहण करें और जैसे इससे तू (पुष्यसे) पुष्ट होता है, वैसे हम लोग भी होवें॥६७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। गृहस्थ मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर के साथ मित्रता कर सत्य व्यवहार से धन को प्राप्त हो के कीर्ति कराने हारे कर्मों को नित्य किया करें॥६७॥

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