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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अभ्रि॑रसि॒ नार्य॑सि॒ त्वया॑ व॒यम॒ग्निꣳ श॑केम॒ खनि॑तुꣳ स॒धस्थ॒ आ। जाग॑तेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभ्रिः॑। अ॒सि॒। नारी॑। अ॒सि॒। त्वया॑। व॒यम्। अ॒ग्निम्। श॒के॒म॒। खनि॑तुम्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धस्थे॑। आ। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्रिरसि नार्यसि त्वया वयमग्निँ शकेम खनितुँ सधस्थ आ जागतेन छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभ्रिः। असि। नारी। असि। त्वया। वयम्। अग्निम्। शकेम। खनितुम्। सधस्थ इति सधस्थे। आ। जागतेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    हे कारीगर पुरुष! जो (त्वया) तेरे साथ (सधस्थे) एक स्थान में वर्त्तमान (वयम्) हम लोग जो (अभ्रिः) भूमि खोदने और (नारी) विवाहित उत्तम स्त्री के समान कार्य्यों को सिद्ध करने हारी लोहे आदि की कसी (असि) है, जिससे कारीगर लोग भूगर्भविद्या को जान सकें, उस को ग्रहण करके (जागतेन) जगती मन्त्र से विधान किये (छन्दसा) सुखदायक स्वतन्त्र साधन से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य (अग्निम्) विद्युत आदि अग्नि को (खनितुम्) खोदने के लिये (आशकेम) सब प्रकार समर्थं हों, उस को तू बना॥१०॥

    भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि अच्छे खोदने के साधनों से पृथिवी को खोद और अग्नि के साथ संयुक्त करके सुवर्ण आदि पदार्थों को बनावें, परन्तु पहिले भूगर्भ की तत्त्वविद्या को प्राप्त होके ऐसा कर सकते हैं, ऐसा निश्चित जानना चाहिये॥१०॥

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