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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 71
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    पर॑स्या॒ऽअधि॑ सं॒वतोऽव॑राँ२ऽअ॒भ्यात॑र। यत्रा॒हमस्मि॒ ताँ२ऽअ॑व॥७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पर॑स्याः। अधि॑। सं॒वत॒ इति॑ स॒म्ऽवतः॑। अव॑रान्। अ॒भि। आ। त॒र॒। यत्र॑। अ॒हम्। अस्मि॑। तान्। अ॒व॒ ॥७१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परस्याऽअधि सँवतोवराँऽअभ्यातर । यत्राहमस्मि ताँऽअव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परस्याः। अधि। संवत इति सम्ऽवतः। अवरान्। अभि। आ। तर। यत्र। अहम्। अस्िम। तान्। अव॥७१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 71
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    पदार्थ -
    हे कन्ये! जिस (परस्याः) उत्तम कन्या तेरा मैं (अधि) स्वामी हुआ चाहता हूं सो तू (संवतः) संविभाग को प्राप्त हुए (अवरान्) नीच स्वभावों को (अभ्यातर) उल्लङ्घन और (यत्र) जिस कुल में (अहम्) मैं (अस्मि) हूं (तान्) उन उत्तम मनुष्यों की (अव) रक्षा कर॥७१॥

    भावार्थ - कन्या को चाहिये कि अपने से अधिक बल और विद्या वाले वा बराबर के पति को स्वीकार करे, किन्तु छोटे वा न्यून विद्या वाले को नहीं। जिस के साथ विवाह करे उसके सम्बन्धी और मित्रों को सब काल में प्रसन्न रक्खे॥७१॥

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