यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 63
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिग्बृहती बृहती
स्वरः - मध्यमः
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दे॒वस्त्वा॑ सवि॒तोद्व॑पतु सुपा॒णिः स्व॑ङ्गु॒रिः सु॑बा॒हुरु॒त शक्त्या॑। अव्य॑थमाना पृथि॒व्यामाशा॒ दिश॒ऽआपृ॑ण॥६३॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। उत्। व॒प॒तु॒। सु॒पा॒णिरिति॑ सुऽपा॒णिः। स्व॑ङ्गु॒रिरिति॑ सुऽअङ्गु॒रिः। सु॒बा॒हुरिति॑ सुऽबा॒हुः। उ॒त। शक्त्या॑। अव्य॑थमाना। पृ॒थि॒व्याम्। आशाः॑। दिशः॑। आ। पृ॒ण॒ ॥६३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्त्वा सवितोद्वपतु सुपाणिः स्वङ्गुरिः सुबाहुरुत शक्त्या । अव्यथमाना पृथिव्यामाशा दिश आ पृण ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवः। त्वा। सविता। उत्। वपतु। सुपाणिरिति सुऽपाणिः। स्वङ्गुरिरिति सुऽअङ्गुरिः। सुबाहुरिति सुऽबाहुः। उत। शक्त्या। अव्यथमाना। पृथिव्याम्। आशाः। दिशः। आ। पृण॥६३॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्रि! (सुबाहुः) अच्छे जिसके भुजा (सुपाणिः) सुन्दर हाथ और (स्वङ्गुरिः) शोभायुक्त जिसकी अंगुली हो ऐसा (सविता) सूर्य के समान ऐश्वर्य्यदाता (देवः) अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त पति (शक्त्या) अपने सामर्थ्य से (पृथिव्याम्) पृथिवी पर स्थित (त्वा) तुझ को (उद्वपतु) वृद्धि के साथ गर्भवती करे। (उत) और तू भी अपने सामर्थ्य से (अव्यथमाना) निर्भय हुई पति के सेवन से अपनी (आशाः) इच्छा और कीर्ति से सब (दिशः) दिशाओं को (आपृण) पूरण कर॥६३॥
भावार्थ - स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि आपस में प्रसन्न एक-दूसरे को हृदय से चाहने वाले परस्पर परीक्षा कर अपनी-अपनी इच्छा से स्वयंवर विवाह कर अत्यन्त विषयासक्ति को त्याग, ऋतुकाल में गमन करनेवाले होकर, अपने सामर्थ्य की हानि कभी न करें। क्योंकि इसीसे जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषों के शरीर में कोई रोग प्रगट और बल की हानि भी नहीं होती। इसलिये इस का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये॥६३॥
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