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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 49
    ऋषिः - उत्कील ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वि पाज॑सा पृ॒थुना॒ शोशु॑चानो॒ बाध॑स्व द्वि॒षो र॒क्षसो॒ऽअमी॑वाः। सु॒शर्म॑णो बृह॒तः शर्म॑णि स्याम॒ग्नेर॒हꣳ सु॒हव॑स्य॒ प्रणी॑तौ॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। पाज॑सा। पृ॒थुना॑। शोशु॑चानः। बाध॑स्व। द्वि॒षः। र॒क्षसः॑। अमी॑वाः। सु॒शर्म्म॑ण॒ इति॑ सु॒ऽशर्म॑णः। बृ॒ह॒तः। शर्म॑णि। स्या॒म्। अ॒ग्नेः। अ॒हम्। सु॒हव॒स्येति॑ सु॒ऽहव॑स्य। प्रणी॑तौ। प्रनी॑ता॒विति॒ प्रऽनी॑तौ ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि पाजसा पृथुना शोशुचानो बाधस्व द्विषो रक्षसोऽअमीवाः । सुशर्मणो बृहतः शर्मणि स्यामग्नेरहँ सुहवस्य प्रणीतौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि। पाजसा। पृथुना। शोशुचानः। बाधस्व। द्विषः। रक्षसः। अमीवाः। सुशर्म्मण इति सुऽशर्मणः। बृहतः। शर्मणि। स्याम्। अग्नेः। अहम्। सुहवस्येति सुऽहवस्य। प्रणीतौ। प्रनीताविति प्रऽनीतौ॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 49
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    पदार्थ -
    हे पते! जो आप (पृथुना) विस्तृत (वि) विविध प्रकार के (पाजसा) बल के साथ (शोशुचानः) शीघ्र शुद्धता से सदा वर्त्तें और (अमीवाः) रोगों के समान प्राणियों की पीड़ा देने हारी (रक्षसः) दुष्ट (द्विषः)

    भावार्थ - विवाह समय में स्त्री-पुरुष को चाहिये कि व्यभिचार छोड़ने की प्रतिज्ञा कर व्यभिचारिणी स्त्री और लम्पट पुरुषों का सङ्ग सर्वथा छोड़ आपस में भी अति विषयासक्ति को छोड़ और ऋतुगामी होके परस्पर प्रीति के साथ पराक्रम वाले सन्तानों को उत्पन्न करें, क्योंकि स्त्री वा पुरुष के लिये अप्रिय, आयु का नाशक, निन्दा के योग्य कर्म व्यभिचार के समान दूसरा कोई भी नहीं है, इसलिये इस व्यभिचार कर्म को सब प्रकार छोड़ और धर्माचरण करने वाले हो के पूर्ण अवस्था के सुख को भोगें॥४९॥

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