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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 31
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - जायापती देवते छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    संव॑साथास्व॒र्विदा॑ स॒मीची॒ऽउर॑सा॒ त्मना॑। अ॒ग्निम॒न्तर्भ॑रि॒ष्यन्ती॒ ज्योति॑ष्मन्त॒मज॑स्र॒मित्॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। व॒सा॒था॒म्। स्व॒र्विदेति॑ स्वः॒ऽविदा॑। स॒मीची॒ऽइति॑ स॒मीची॑। उर॑सा। त्मना॑। अ॒ग्निम्। अ॒न्तः। भ॒रि॒ष्यन्ती॒ऽइति॑ भरि॒ष्यन्ती॑। ज्योति॑ष्मन्तम्। अज॑स्रम्। इत् ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवसाथाँ स्वर्विदा समीची उरसा त्मना । अग्निमन्तर्भरिष्यन्ती ज्योतिष्मन्तमजस्रमित् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। वसाथाम्। स्वर्विदेति स्वःऽविदा। समीचीऽइति समीची। उरसा। त्मना। अग्निम्। अन्तः। भरिष्यन्तीऽइति भरिष्यन्ती। ज्योतिष्मन्तम्। अजस्रम्। इत्॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 31
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    पदार्थ -
    हे स्त्रीपुरुषो! तुम दोनों जो (समीची) अच्छे प्रकार पदार्थों को जानने (भरिष्यन्ती) और सब का पालन करने हारे (स्वर्विदा) सुख को प्राप्त होते हुए (ज्योतिष्मन्तम्) अच्छे प्रकाश से युक्त (अन्तः) सब पदार्थों के बीच वर्त्तमान (अग्निम्) बिजुली को (इत्) ही (त्मना) (उरसा) अपने अन्तःकरण से (अजस्रम्) निरन्तर (संवसाथाम्) अच्छी तरह आच्छादन करो तो लक्ष्मी भोग सको॥३१॥

    भावार्थ - जो गृहस्थ मनुष्य बिजुली को उत्पन्न करके ग्रहण कर सकते हैं, वे व्यवहार में दरिद्र कभी नहीं होते॥३१॥

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