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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 14
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - आतिथ्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    आ॒ति॒थ्य॒रू॒पं मास॑रं महावी॒रस्य॑ न॒ग्नहुः॑। रू॒पमु॑प॒सदा॑मे॒तत्ति॒स्रो रात्रीः॒ सुरासु॑ता॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ति॒थ्य॒रू॒पमित्या॑तिथ्यऽरू॒पम्। मास॑रम्। म॒हा॒वी॒रस्येति॑ महाऽवी॒रस्य॑। न॒ग्नहुः॑। रू॒पम्। उ॒प॒सदा॒मित्यु॑प॒ऽसदा॑म्। ए॒तत्। ति॒स्रः। रात्रीः॑। सुरा॑। आसु॒तेत्याऽसु॑ता ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतिथ्यरूपम्मासरम्महावीरस्य नग्नहुः । रूपमुपसदामेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आतिथ्यरूपमित्यातिथ्यऽरूपम्। मासरम्। महावीरस्येति महाऽवीरस्य। नग्नहुः। रूपम्। उपसदामित्युपऽसदाम्। एतत्। तिस्रः। रात्रीः। सुरा। आसुतेत्याऽसुता॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (मासरम्) जिससे अतिथिजन महीनों में रमण करते हैं, ऐसे (आतिथ्यरूपम्) अतिथियों का होना वा उनका सत्काररूप कर्म वा (महावीरस्य) बड़े वीर पुरुष का (नग्नहुः) जो नग्न अकिञ्चनों का धारण करता है, वह (रूपम्) रूप वा (उपसदाम्) गृहस्थादि के समीप में भोजनादि के अर्थ ठहरनेहारे अतिथियों का (तिस्रः) तीन (रात्रीः) रात्रियों में निवास कराना (एतत्) यह रूप वा (सुरा) सोमरस (आसुता) सब ओर से सिद्ध की हुई क्रिया है, उन सब का तुम लोग ग्रहण करो॥१४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य धार्मिक, विद्वान् अतिथियों का सत्कार, सङ्ग और उपदेशों को और वीरों को मान्य तथा द्ररिद्रों को वस्त्रादि दान, अपने भृत्यों को निवास देना और सोमरस की सिद्धि को सदा करते हैं, वे कीर्तिमान् होते हैं॥१४॥

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