यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 91
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो बला॑य॒ कर्णा॑भ्या॒ श्रोत्र॑म॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्याम्। यवा॒ न ब॒र्हिर्भ्रु॒वि केस॑राणि क॒र्कन्धु॑ जज्ञे॒ मधु॑ सार॒घं मुखा॑त्॥९१॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। रू॒पम्। ऋ॒ष॒भः। बला॑य। कर्णा॑भ्याम्। श्रोत्र॑म्। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। यवाः॑। न। ब॒र्हिः। भ्रु॒वि। केस॑राणि। क॒र्कन्धु॑। ज॒ज्ञे॒। मधु॑। सा॒र॒घम्। मुखा॑त् ॥९१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य रूपम्वृषभो बलाय कर्णाभ्याँ श्रोत्रममृतङ्ग्रहाभ्यां । यवा न बरिर्भ्रुवि केसराणि कर्कन्धु जज्ञे मधु सारघम्मुखात् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रस्य। रूपम्। ऋषभः। बलाय। कर्णाभ्याम्। श्रोत्रम्। अमृतम्। ग्रहाभ्याम्। यवाः। न। बर्हिः। भ्रुवि। केसराणि। कर्कन्धु। जज्ञे। मधु। सारघम्। मुखात्॥९१॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जैसे (ग्रहाभ्याम्) जिनसे ग्रहण करते हैं, उन व्यवहारों के साथ (ऋषभः) ज्ञानी पुरुष (बलाय) योग-सामर्थ्य के लिये (यवाः) यवों के (न) समान (कर्णाभ्याम्) कानों से (श्रोत्रम्) शब्दविषय को (अमृतम्) नीरोग जल को और (कर्कन्धु) जिससे कर्म को धारण करें, उसको (सारघम्) एक प्रकार के स्वाद से युक्त (मधु) सहत (बर्हिः) वृद्धिकारक व्यवहार और (भ्रुवि) नेत्र और ललाट के बीच में (केसराणि) विज्ञानों अर्थात् सुषुम्ना में प्राण वायु का निरोध कर ईश्वरविषयक विशेष ज्ञानों को (मुखात्) मुख से उत्पन्न करता है, वैसे वह सब (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्य का (रूपम्) स्वरूप (जज्ञे) उत्पन्न होता है॥९१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे निवृत्ति मार्ग में परम योगी योगबल से सब सिद्धियों को प्राप्त होता है, वैसे ही अन्य गृहस्थ लोगों को भी प्रवृत्ति मार्ग में सब ऐश्वर्य्य को प्राप्त होना चाहिये॥९१॥
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