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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 55
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    बर्हि॑षदः पितरऽऊ॒त्यर्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्। तऽआग॒ताव॑सा॒ शन्त॑मे॒नाथा॑ नः॒ शंयोर॑र॒पो द॑धात॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बर्हि॑षदः। बर्हि॑सद॒ इति॒ बर्हिऽसदः। पि॒त॒रः॒। ऊ॒ती। अ॒र्वाक्। इ॒मा। वः॒। ह॒व्या। च॒कृ॒म॒। जु॒षध्व॑म्। ते। आ। ग॒त॒। अव॑सा। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। अथ॑। नः॒। शम्। योः। अ॒र॒पः। द॒धा॒त॒ ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बर्हिषदः पितरऽऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् । तऽआगतावसा शन्तमेनाथा नः शँयोररपो दधात ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बर्हिषदः। बर्हिसद इति बर्हिऽसदः। पितरः। ऊती। अर्वाक्। इमा। वः। हव्या। चकृम। जुषध्वम्। ते। आ। गत। अवसा। शन्तमेनेति शम्ऽतमेन। अथ। नः। शम्। योः। अरपः। दधात॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 55
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    पदार्थ -
    हे (बर्हिषदः) उत्तम सभा में बैठनेहारे (पितरः) न्याय से पालना करने वाले पितर लोगो! हम (अर्वाक्) पश्चात् जिन (वः) तुम्हारे लिये (ऊती) रक्षणादि क्रिया से (इमा) इन (हव्या) भोजन के योग्य पदार्थों का (चकृम) संस्कार करते हैं, उन का तुम लोग (जुषध्वम्) सेवन किया करो। वे आप लोग (शन्तमेन) अत्यन्त कल्याणकारक (अवसा) रक्षणादि कर्म के साथ (आ, गत) आवें। (अथ) इसके अनन्तर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख तथा (अरपः) सत्याचरण को (दधात) धारण करें और दुःख को (योः) हम से पृथक् रक्खें॥५५॥

    भावार्थ - जिन पितरों की सेवा सन्तान करें, वे अपने सन्तानों में अच्छी शिक्षा से सुशीलता को धारण करें॥५५॥

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