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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 45
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ये स॑मा॒नाः सम॑नसः पि॒तरो॑ यम॒राज्ये॑। तेषां॑ लो॒कः स्व॒धा नमो॑ य॒ज्ञो दे॒वेषु॑ कल्पताम्॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। स॒मा॒नाः। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। पि॒तरः॑। य॒म॒राज्य॒ इति॑ यम॒ऽराज्ये॑। तेषा॑म्। लो॒कः। स्व॒धा। नमः॑। य॒ज्ञः। दे॒वेषु॑। क॒ल्प॒ता॒म् ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषाँलोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। समानाः। समनस इति सऽमनसः। पितरः। यमराज्य इति यमऽराज्ये। तेषाम्। लोकः। स्वधा। नमः। यज्ञः। देवेषु। कल्पताम्॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 45
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    पदार्थ -
    (ये) जो (समानाः) सदृश (समनसः) तुल्य विज्ञानयुक्त (पितरः) प्रजा के रक्षक लोग (यमराज्ये) यथावत् न्यायकारी सभाधीश राजा के राज्य में हैं, (तेषाम्) उनका (लोकः) सभा का दर्शन (स्वधा) अन्न (नमः) सत्कार और (यज्ञः) प्राप्त होने योग्य न्याय (देवेषु) विद्वानों में (कल्पताम्) समर्थ होवे॥४५॥

    भावार्थ - जहां बहुदर्शी अन्नादि ऐश्वर्य से संयुक्त सज्जनों से सत्कार को प्राप्त एक धर्म ही में जिनकी निष्ठा है, उन विद्वानों की सभा सत्यन्याय को करती है, उसी राज्य में सब मनुष्य ऐश्वर्य्य और सुख में निवास करते हैं॥४५॥

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